हमारे सामने था नन्दादेवी हिम-शिखर जो हिमालय पर्वत श्रृंखला में पूर्व में गौरी गंगा और पश्चिम में ऋषि गंगा की घाटियों के बीच उत्तराखण्ड में स्थित है। इसकी ऊंचाई 7816 मीटर (25643 फिट) है और पूरे उत्तराखण्ड में इसे मुख्य देवी (पार्वती) के रूप में पूजा जाता है।
अमित शर्मा “मीत”
पहाड़ों की गोद में बसे नैनीताल जिले के एक छोटे से खूबसूरत गांव कनरखा (Kanarkha Village) में सुकून भरी नींद से जागने के बाद अम्मा के हाथ की बनी सुबह की उस एक प्याली तुलसी-अदरक की कड़क चाय ने हममें एक अलग ही ऊर्जा भर दी थी। सात बजने को थे और सूर्यनारायण की नजर सारे गांव पर अब तक अच्छे से पड़ चुकी थी, मतलब उजाला अपने पांव पूरी तौर पर पसार चुका था और जोरदार सर्द हवा के बीच मद्धम-मद्धम धूप ने भी अपनी सरगोशियां तेज़ कर दी थीं।
“अभी मॉर्निंग वॉक पर कहां ले चलेंगे हमें?”इस सवाल पर जय किशन दानी ने मुस्कुराते हुए कहा, “आज गांव की सबसे ऊंची चोटी पर वॉक करा कर लाता हूं; आप लोगों को मजा आ जायेगा।” इतने में बाबूजी ने एक वॉकिंग स्टिक जिन्दल साहब (संजीव जिन्दल “साइकिल बाबा”) को देते हुए कहा, “भाई चढ़ाई बहुत है और रास्ता मुश्किल, सो इसे साथ रख लो, सफर आसान रहेगा।” (Wanderer in Nainital: Silver on the roof of Kanarkha village)
बस फिर क्या था, मैं और बुढ़ाई उत्साह और उम्मीद की गठरी सिर पर धरे जय किशन जी के साथ वॉक पर निकल पड़े। खड़ी चढ़ाई, पथरीले, संकरे और दुर्गम रास्तों पर हंसते-मुस्कुराते हम चले जा रहे थे। तकरीबन 4-5 किलोमीटर ऊपर चढ़ने के बाद जब हम एक समतल रास्ते पर पहुंचे तो वहां से नीचे का नजारा देखकर मजा आ गया। हरियाली के बीच से निकलते पतले रास्ते, पहाड़ों के बीच छोटे-छोटे मकान, मानो हम दोनों किसी कलाकार की बनाई कोई पेंटिंग देख रहे हों। हम लोग तस्वीरें जुटाने में मसरूफ होने लगे कि तभी जय किशन जी हंसते हुए बोले, “अरे अभी और ऊपर चढ़ना है भाई… असली नज़ारा तो वहां है।” हम दोनों की आंखों में दोबारा चमक आ गयी और फिर वहां से तकरीबन और दो किलोमीटर ऊपर चढ़ने के बाद जो नजारा हमारी आंखों के सामने था… उफ्फ! क्या बताऊं आपको अपनी खुशकिस्मती की दास्तां! खुद पर भरोसा नहीं हो रहा था कि हम इतने ऊपर चढ़कर आ चुके हैं कि अब हम हिमालय की आंखों में इत्मीनान से झांक सकते हैं, “वाओ! इट वाज़ रियली अमेजिंग फीलिंग दैट टाइम।”
प्रकृति की गोद : सुयालबाड़ी का शानदार ढोकाने जलप्रपात
हमारे सामने थानन्दादेवी हिम-शिखर (Nandadevi Snow Peak) जो हिमालय पर्वत श्रृंखला में पूर्व में गौरी गंगा और पश्चिम में ऋषि गंगा की घाटियों के बीच उत्तराखण्ड में स्थित है। इसकी ऊंचाई 7816 मीटर (25643 फिट) है और पूरे उत्तराखण्ड में इसे मुख्य देवी (पार्वती) के रूप में पूजा जाता है। साथ ही आपको बताता चलूं कि नन्दा देवी चोटी भारत में कंचनजंघा के बाद दूसरी और विश्व की 23वीं सर्वोच्च पर्वत चोटी है जिससे अब हम रूबरू हो रहे थे। इसके साथ ही हमारी आंखों को दीदार हो रहा था त्रिशूल चोटी का भी। यकीन जानिए सबकुछ किसी ख्वाब जैसा ही था।

त्रिशूल पश्चिमी कुमाऊं में स्थित हिमालय की तीन चोटियों के एक समूह का नाम है। यह नन्दा देवी पर्वत से दक्षिण-पश्चिम दिशा में पन्द्रह किलोमीटर दूर नन्दा देवी राष्ट्रीय उद्यान को घेरने वाली चोटियों के समूह का एक दक्षिणी-पूर्वी भाग है। तीन चोटियों के एक साथ होने के कारण भगवान शिव के अस्त्र त्रिशूल (Trishul Peak) के नाम पर इसका नाम रखा गया है। इसकी ऊंचाई 7120 मीटर (23360 फिट) है।
इतनी ऊंचाई पर खड़े थे हम जहां से एक ओर पलकें झुकाता हुआ गांव तो दूसरी ओर सामने मुस्कुराता बर्फ से लदा हिमालय और चारों ओर खिलखिलाते हुए हरे पहाड़ी जंगल। सर्द मौसम में सुबह-सुबह तकरीबन सात किलोमीटर की घनघोर चढ़ाई करने के बाद आंखों को ठंडक, दिल को खुशी और जेहन को सुकून देता यह नज़ारा वाकई लाजवाब था। काफी देर तलक हम दोनों धूप की ओट में इन चोटियों को निहारते हुए इन्हें तस्वीरों की शक्ल में कैद करने में मशगूल रहे। आखिर में बड़ी बेबसी के साथ बे-मन से इस नजारे को अलविदा कहते हुए हम नीचे गांव की ओर चल दिये। आखिर कुदरत की गोद से कौन ही उतरना चाहेगा?
वापसी का वक्त था वह

मॉर्निंग वॉक से गांव वापसी के वक्त रास्ते में ट्रैकिंग के दौरान साइकिल बाबा ने कहा, “अब तक इतनी जगह घूमा चुका हूं, इतनी यात्राएं की हैं पर तुम्हारे साथ मेरी यह पहली ही यात्रा सबसे खास और यादगार हो गयी है। सच कह रहा हूं कभी ना भूल पाऊंगा इस यात्रा को। शुक्रिया लल्ला।” मैने कहा, “बुढ़ाई यह तो शुरुआत है, अभी तो बहुत सारी यात्राएं साथ करनी हैं।”
घर आने के बाद हम लोग प्यास से सूख चुके गले को तर करने और सुस्ताने के लिए बाबूजी के पास ही बैठ गये। कनरखा की शानदार फिजाओं में यहां की लज्जत को महसूस करने और यहां के सुकून भरे नजारों को देखने के बाद हैरानी से लबरेज हो चुकीं आंखों से बाबूजी को ओर देखते हुए मैंने कहा, “बाबूजी! जन्नत में रहते हो आप, चारों तरफ़ शानदार हरियाली और जानदार पहाड़ों के बीच में बना है आपका यह आलीशान घर। …और हिमालय कितना सुन्दर दिखता है आपके गांव की छत से। सबकुछ ऐसा मानो यहीं स्वर्ग है।” बीड़ी पी रहे बाबूजी ने चेहरे पर मद्धम मुस्कान बिखेरते हुए अपनी सहमति हम लोगों को दर्ज़ कराई।
गपशप चल ही रही थी कि अचानक हमने देखा कि सामने से जय किशन जी की पत्नी बड़े इत्मीनान से घास-पत्तों का एक बहुत बड़ा सा ढेर जो रस्सियों के जाल में बंधा हुआ है, उसे सिर पर लादे चली आ रही हैं। हम दोनों ने हवाई अंदाजे लगाते हुए उनसे पूछा कि इसका वजन ज़्यादा तो नहीं होगा क्योंकि यह है ही क्या, बस घास-पत्ते ही तो हैं। वह हंसते हुए बोलीं अरे आप क्या बात कर रहे हैं, इसमें काफ़ी वजन है। हम दोनों के मन में उत्सुकता हुई कि क्यों ना अब इसे सिर पर रख कर देख ही लिया जाए। इसी बीच जिन्दल बाबा ने उनसे वह बोझ अपने सिर पर रखने के लिये कहा। पहले तो उन्होंने हंसते हुए मना किया, फिर बहुत अनुरोध करने पर उन्होंने जैसे ही वह बोझ उनके सिर पर रखा, बाबाजी की गर्दन कतई झूल गयी जिसे देख मैं तो दंग ही रह गया, साथ ही उस बोझ को अपने सिर पर उठाने का जो मैंने सोचा था वह उसी एक पल में धुआं हो लिया। हैरानी भरी आवाज में बुढ़ाई ने कहा, “वाकई यह बहुत भारी गट्ठर है यार…।” हम लोग हतप्रभ थे इस बात को सोचकर कि जंगल के जिन पथरीले-संकरे रास्तों पर हम सीधी तौर पर चल भी नहीं पा रहे थे, उन रास्तों से होकर इतने भारी बोझ के साथ एक औरत का इस तरह का डेली रुटीन कितना हैरतंगेज है। वास्तव में पहाड़ी जन-जीवन जीवटता की मिसाल है। विषम से विषम परिस्थितियों को मुस्कुराते हुए सुगम बनाने की जो सोच, जो जज्बा, जो फितरत, जो हिम्मत यहां के लोगों में है वह वाकई काबिल-ए-तारीफ है, काबिल-ए-एहतराम है।

“बाबू लोग, चाय बनवा ली जाए?” रसोई की दहलीज़ से जय किशन जी की आवाज आती है। जवाब में हम दोनों ने एक सुर में कहा, “नहीं भाई! हम लोग अब चाय नहीं पियेंगे, सीधे नाश्ता ही करेंगे।”
इसके बाद बीते दिन से हमारे जेहन में जो खिचड़ी पक रही थी उसे परोसने का वक्त भी आ ही गया। सो हमने बाबूजी से कहा कि जरा अम्मा को बुला लीजिये, हमें आप लोगों से बातचीत करनी है जिसे हम लोग रिकॉर्ड करेंगे। अम्मा को बुला लिया गया और फिर हम लोगों ने एक छायादार कोने में अपनी चौपाल जमा ली।
ढोकाने जलप्रपात से कुछ दूर दिवाली की वह रात पहाड़ों के साथ
हमारी बातचीत का दौर अम्मा-बाबूजी की शादी के वक्त की गपशप से शुरू होकर पहाड़ी जन-जीवन में बाढ़-सूखे के प्रभाव और तमाम तरह की मुश्किलात से होता हुआ पहाड़ों पर शराब के कहर जैसे ज्वलंत मुद्दे के साथ बाबूजी की जिन्दगी से जुड़े 2-4 किस्सों से होता हुआ हंसी-ठहाकों पर जाकर खत्म हुआ। सच में यादगार बैठकी थी वह। यूं लगा जैसे अपने मां-बाऊजी के साथ ही बातें कर रहा था मैं।
अब वक्त हो चला था गरमा-गरम नाश्ते का जो हमारे सामने पेश किया जा चुका था। खुशबूदार धनिये से सजी आलू-टमाटर की तरीदार सब्जी, आलू के गुटके, खीरे-पुदीना का रायता और केले के पत्ते पर रखीं बढ़िया सिंकी हुई पूड़ियां। सब कुछ इतना स्वाद और उससे भी ज्यादा लज्जत थी उस जगह में, उस फिजा में, उस मुहब्बत में जिसके दरमियां हम दोनों बैठे थे।

नाश्ते के बाद हमसे दोपहर के खाने के लिए पूछा जा रहा था और फिर हमने कहा कि नहीं! अब हम लोग जायेंगे। इसी के साथ वहां सभी के चेहरों पर आयी उदासी उनकी बेशुमार मोहब्बत में और इजाफा कर गयी। अम्मा ने कहा, अभी मैं ठीक से आप दोनों को कुछ खिला भी नहीं पायी। अभी तो बहुत कुछ बना कर खिलाना था। रुक जाओ ना कुछ दिन और। हमारी आंखें भर चुकी थीं पर वापसी की मजबूरी और वक्त ने हमें बेबस रख छोड़ा था। सो हम अम्मा से गले लगकर जल्द ही आने का वादा करके उनसे विदा मांगने लगे। घर के बड़े-बूढ़े-बच्चे सभी लोग अब इक्कट्ठे हो गए थे हमें विदा करने के लिए। माहौल इतना भावुकतापूर्ण हो चुका था कि एक पल को भी लगा ही नहीं कि हम यहां पहली बार आये हैं या ये लोग हमसे पहली बार मिल रहे हैं। हमने इन यादगार पलों को तस्वीरों में कैद करने की जुगत बनाते हुए सभी को एक फ्रेम में जोड़ लिया और फिर क्लिक पर क्लिक होने लगे। तस्वीरों के बाद सभी ने हंसते-मुस्कुराते नम आंखों से हमें विदा किया और हम लोग जय किशन जी के साथ गांव से नीचे की ओर चल दिये अपने अगले सफर की ओर…।
ढोकाने जलप्रपात के बाद कनरखा में पहाड़ों की गोद में होम स्टे
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