जटा गंगा के तट पर स्थित जागेश्वर धाम को भगवान शिव की तपोस्थली कहा जाता है। हालांकि इसके ज्योतिर्लिंग होने को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं। जागेश्वर मन्दिर को उत्तराखण्ड का पांचवां धाम भी कहा जाता है। मान्यता है कि सुर, नर, मुनि से सेवित हो भगवान भोलेनाथ यहां जागृत हुए थे इसीलिए इस जगह का नाम जागेश्वर पड़ा।
डॉ. मंजू तिवारी
सनातन धर्म में माघ को सबसे पवित्र माह माना जाता है और सोमवार का दिन भगवान शिव को समर्पित है। कुमाऊं भ्रमण के दौरान 16 जनवरी को माघ मास का दूसरा सोमवार था। तय हुआ कि जागेश्वर धाम (Jageshwar Dham) में भगवान शिव का रुद्राभिषेक किया जाये। प्रातः नौ बजे हम लोग कार से जागेश्वर के लिए रवाना हुए। अल्मोड़ा से जागेश्वर करीब 38 किलोमीटर पड़ता है। चितई, बाड़ेछीना, पनुवानौला, अर्तोला होते हुए हमारा सफर आगे बढ़ा। जागेश्वर के करीब आने के साथ ही चीड़ के जंगलों की जगह देवदार के ऊंचे वृक्षों के सघन वन मिलने शुरू हो गये। दण्डकेश्वर (जागेश्वर से एक किमी पहले मन्दिरों का समूह) होते हुए करीब 10 बजे हम शिव के धाम पहुंच गये।
घने जंगलों वाली घाटी में स्थित जागेश्वर धाम (Jageshwar Dham) में प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ ही चारों ओर अलौकिक आभा का अनुभव होता है। तेज सर्दी के बावजूद किसी भी तरह के परेशानी का अनुभव नहीं हो रहा था। दरअसल, पहाड़ों की सर्दी उत्तर भारत के मैदानों से काफी अलग होती है। मैदानी इलाकों की कड़क सर्दी में हाथ-पांव अकड़ने लगते हैं और लगता है कि सर्द हवा हड्डियों तक को चीर देगी। इसके विपरीत पहाड़ों की ठंडक सुकुन और झुरझुरी देने वाली होती है।
जागेश्वर की महिमा और मान्यताएं

जटा गंगा के तट पर स्थित जागेश्वर धाम को भगवान शिव की तपोस्थली कहा जाता है। हालांकि इसके ज्योतिर्लिंग होने को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं। जागेश्वर मन्दिर को उत्तराखण्ड का पांचवां धाम भी कहा जाता है। मान्यता है कि सुर, नर, मुनि से सेवित हो भगवान भोलेनाथ यहां जागृत हुए थे इसीलिए इस जगह का नाम जागेश्वर पड़ा। इस पावनस्थली के बारे में एक श्लोक है :
मा वैद्यनाथ मनुषा व्रजन्तु, काशीपुरी शंकर बल्ल्भावां।
मायानगयां मनुजा न यान्तु, जागीश्वराख्यं तू हरं व्रजन्तु।
(मनुष्य वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग न जा पाये, शंकर प्रिय काशी और मायानगरी (हरिद्वार) भी न जा सके तो जागेश्वर धाम में भगवान शिव के दर्शन जरूर करना चाहिए।)
एक और मान्यता है कि सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी। शिवलिंग पूजन की परम्परा भी यहां से ही शुरू हुई थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मन्दिर (Jageshwar Temple) में मांगी गयी मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएं पूरी नहीं होतीं, केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं। (Jageshwar Temple: Mahadev’s awakened abode from where the tradition of Shivling worship started)

स्कन्द पुराण, लिंग पुराण और मार्कण्डेय पुराण में जागेश्वर (Jageshwar) की महिमा का बखान किया गया है। श्रद्धालु मानते हैं कि महामृत्युंजय मन्दिर में रुद्राभिषेक, जप आदि करने से मृत्युतुल्य कष्ट भी टल जाता है। सावन का महीना शिवजी का महीना माना जाता है, इसी कारण पूरे श्रावण मास में जागेश्वर में मेला लगा रहता है।
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मन्दिर समूह एवं निर्माण काल
समुद्र की सतह से 1870 मीटर की ऊंचाई पर स्थित जागेश्वर क्षेत्र में ढाई सौ छोटे-बड़े मन्दिर हैं। इनमें से 124 जागेश्वर मन्दिर (धाम) परिसर में हैं। सबसे विशाल और प्राचीनतम महामृत्युंजय शिव मन्दिर यहां का मुख्य मन्दिर है। इसके अलावा योगेश्वर (जागेश्वर), मृत्युंजय महादेव, भैरव, माता पार्वती, केदारनाथ, हनुमान, देवी दुर्गा, कुबेर, नवग्रह, बालेश्वर आदि के मन्दिर भी विद्यमान हैं। इनमें 108 मन्दिर भगवान शिव जबकि 16 अन्य देवी-देवताओं को समर्पित हैं। कुबेर मन्दिर के बारे में मान्यता है कि यहां का सिक्का अपने ख़जाने में रख देने पर भण्डार कभी खाली नहीं होता है। ये सभी मन्दिर केदारनाथ शैली यानी नागर शैली में बनाए गये हैं।

जागेश्वर धाम (Jageshwar Dham) को कोई एक हजार तो कोई दो हजार वर्ष प्राचीन बताता है। पर्याप्त लिखित साक्ष्य न होने की वजह से यह मन्दिर अटकलों का शिकार है। इसकी दीवारों पर ब्राह्मी और संस्कृत में लिखे शिलालेखों से इसके निर्माण काल के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती है। हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मन्दिरों का निर्माण सातवीं से 14वीं सदी में हुआ था। इस अवधि को तीन कालों में बांटा गया है- कत्यूरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चन्दकाल। इन राजवंशों ने जागेश्वर समेत पूरे अल्मोडा जिले में चार सौ से अधिक मन्दिरों का निर्माण करवाया था। जागेश्वर धाम के मन्दिरों का निर्माण पत्थर की बडी-बडी शिलाओं से किया गया है। तांबे की चादरों और देवदार की लकड़ी का भी इस्तेमाल किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं।
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शिवलिंग पर गाय के घी का आवरण
मन्दिर पहुंच कर सबसे पहले हमने स्वयंभू शिवलिंग के दर्शन किए। तत्पश्चात पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार पण्डित कैलास संगम शास्त्री ने रुद्राभिषेक कराया। रुद्राभिषेक करते समय ही बीच में शास्त्री जी ने हमें मुख्य शिवलिंग और महामृत्युंजय मन्दिर के दर्शन भी कराए।
इस बार जागेश्वर धाम में मैंने देखा कि शिवलिंग को गाय के घी से ढक कर उस पर गुफा जैसा निर्माण किया गया था। प्राचीन मान्यता के अनुसार भगवान शिव ने उत्तरायणी (मकर संक्रान्ति) से एक महीने तक इस गुफा में रहकर कठोर तपस्या की थी। इसी परम्परा का अनुसरण करते हुए यहां गाय के 35 किलो घी से गुफा बनाई जाती है। शिवलिंग को इसके अन्दर एक महीने तक तपस्या के लिए रखा जाता है और ढोल-नगाड़ों के साथ महाआरती का आयोजन किया जाता है।

गुफा बनाने के लिए मन्दिर के पुरोहितों द्वारा विशेष पूजा-अर्चना कर गाय के घी को पानी में उबाल कर शुद्ध किया जाता है। इसी घी को गुफा का रूप प्रदान कर मंत्रोच्चार के साथ पूजा की जाती है। घी और महाआरती की व्यवस्था स्थानीय निवासियों और बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं के सहयोग से की जाती है। फाल्गुन मास की संक्रान्ति के दिन शिवजी को गुफा से बाहर निकाल कर इस घी का प्रसाद श्रद्धालुओं में बांटा जाता है। मान्यता है कि इस पवित्र घी से विभिन्न अंगों, त्वचा और दिमाग की कई बीमारियों से मुक्ति मिलती है।
जिस प्रकार लोग हरिद्वार जाकर जनेऊ संस्कार आदि कराते हैं, उसी प्रकार यहां भी कई संस्कार किए जाते हैं। मन्दिर के आस-पास भ्रमण करते समय हमने देखा कि ब्रह्मकुण्ड में जनेऊ संस्कार हो रहा था। निकट ही विवाह संस्कार भी सम्पन्न कराया जा रहा था।
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फोटोग्राफी की मनाही
पूजा-अर्चना के पश्चात हमने एक भोजनालय में खाना खाया। उसके बाद आस-पास के मन्दिरों में दर्शन किए। सभी जगह मन्दिर के गर्भगृह की फोटो खींचना मना है। इसके लिए स्थान-स्थान पर निर्देश पट्टिकाएं लगाई गयी हैं। निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरे भी लगाए गये हैं। पूछने पर पता चला कि ये कैमरे उत्तराखण्ड सरकार के पुरातत्व विभाग द्वारा प्रदेश के सभी प्रमुख मन्दिरों में कुछ वर्ष पूर्व ही लगाए गये हैं। पहले गर्भगृह और प्रतिमाओं की फोटो खींचना मना नहीं था। सनातन धर्म को मानने वालों की आस्था की प्रतीक एक मूर्ति के चोरी होने के बाद सनातन धरोहरों को बचाने के लिए ऐसा किया गया है।

अल्मोड़ा वापसी
भगवान शिव को नमन कर और पुनः आने की कामना करते हुए हम अल्मोड़ा की ओर वापस चल दिए। रास्ते में हमने गोलू डाना के दर्शन किए जो गोलू (गोलज्यू) देवता के भाई माने जाते हैं। माना जाता है कि इनके दर्शन करने पर ही चितई के दर्शन पूरे होते हैं। सायंकाल साढ़े चार बजे के आस-पास हम अल्मोड़ा पहुंच गये।
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कब जायें
समशीतोष्ण जलवायु के कारण जागेश्वर धाम सालभर जाया जा सकता है। यहां ग्रीष्मकाल हल्का सर्द और सुखद होता है जबकि नवम्बर से फरवरी के बीच तेज सर्दी पड़ती है और कई बार हिमपात होता है। मानसून काल में यहां का मौसम सुहावना रहता है पर भूस्खलन का खतरा बना रहता है।
आसपास के दर्शनीय स्थल
बिनसर वन्यजीव अभय़ारण्य (59 किमी, वाया अल्मोड़ा), पाताल भुवनेश्वर (105 किमी), मुक्तेश्वर (77 किमी), रामगढ़ (81 किमी), बेरीनाग (93 किमी), चौकोड़ी (106 किमी), रानीखेत (78 किमी), चौखुटिया (110 किमी), पिथौरागढ़ 86 किमी, चम्पावत (101 किमी), एबॉट माउंट (87 किमी), लोहाघाट (88 किमी), डीडीहाट (153 किमी), कौसानी (84 किमी), दूनागिरि मन्दिर (104 किमी, वाया अल्मोड़ा-मजखाली), कैंची धाम (79 किमी), ज्योलीकोट (107 किमी, वाया नैनीताल)।
ऐसे पहुंचें
वायु मार्ग : निकटतम हवाईअड्डा पन्तनगर एयरपोर्ट यहां से करीब 150 किलोमीटर पड़ता है। हालांकि यहां के लिए गिनीचुनी उड़ानें ही हैं। बरेली एयरपोर्ट यहां से करीब 222 किलोमीटर दूर है जहां के लिए मुम्बई, बंगलुरु, जयपुर और दिल्ली से सीधी उड़ानें हैं।
रेल मार्ग : निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम के लिए हावड़ा, कानपुर, लखनऊ और दिल्ली से सीधी ट्रेन सेवा है। रामनगर रेलवे स्टेशन यहां से करीब 164 किलोमीटर दूर है जहां से आगरा, मथुरा, भरतपुर, कोटा, रतलाम, भरूच, सूरत, वापी और मुम्बई के बांद्रा टर्मिनल के लिए ट्रेन मिलती हैं।
सड़क मार्ग : जागेश्वर धाम नैनीताल से करीब 99, हल्द्वानी से 123, देहरादून से 390 और आनन्द विहार (दिल्ली) से 380 किलोमीटर दूर है। इन सभी स्थानों से अल्मोड़ा के लिए सरकारी और निजी बसें चलती हैं। अल्मोड़ा से जागेशवर जाने के लिए शेयरिंग जीप या टैक्सी कर सकते हैं।
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