दूनागिरि मन्दिर (Dunagiri Temple) को उत्तराखण्ड के सबसे प्राचीन और सिद्ध शक्तिपीठों में गिना जाता है। जम्मू-कश्मीर में कटरा के पास स्थिति वैष्णो देवी मन्दिर के बाद यह दूसरा वैष्णो शक्तिपीठ माना जाता है।
डॉ. मंजू तिवारी
अल्मोड़ा शहर लगभग पूरा घूम चुकने के बाद तय हुआ कि अब दूनागिरि धाम चला जाये। सात जनवरी की अत्यन्त सर्द सुबह हमलोग खाने-पीने का सामान लेकर द्रोणगिरि के लिए रवाना हो गये, वही पर्वत जहां जगतजननी का वास है। कोसी, सोमेश्वर, बिन्ता आदि होता हुआ हमारा सुहाना सफर मन्दिर की और बढ़ रहा था। रास्ते में एक स्थान पर कार रोकी गयी। वहां मैंने विशेष प्रकार के कुछ पक्षी देखे जिनकी पूंछ लगभग डेढ़ से दो फुट लम्बी थी। लाल चोंच, रंग-बिरंगे, इधर से उधर एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर लगातार चीं-चीं के मधुर स्वर के साथ उड़ते उन पक्षियों के कलरव से स्वच्छ जल से युक्त शान्त बहती कोसी नदी और चीड के वृक्षों से घिरा वह वन प्रदेश गुंजायमान हो रहा था।
दूनागिरि धाम (Dunagiri Dham) से कुछ पहले एक मोड़ पर वाहन के घूमते ही हरेभरे पहाड़ों के बीच से दुग्ध-धवल हिमालय के दर्शन हुए। सर्दी के मौसम में जब पहाड़ों में अक्सर धुंध छायी रहती है, आसमान का साफ होना और हिमालय का दिखना हमारे लिए प्रकृति से मिले उपहार सरीखा था। दोपहर लगभग 12 बजे हम दूनागिरि मंदिर की पार्किंग पर पहुंच गये।
दूनागिरि मन्दिर (Dunagiri Temple) द्वाराहाट से करीब 15 किलोमीटर दूर द्रोणगिरि पर्वत पर देवदार, बांज और सुरई के घने जंगल की बीच में स्थित है। द्रोण पर्वत के नाम को लेकर दो तरह की मान्यताएं हैं। पहली मान्यता के अनुसार पाण्डवों के गुरु द्रोण ने यहां तपस्या की थी। दूसरी मान्यता के अनुसार मेघनाद की शक्ति लगने से लक्ष्मण के अचेत होने पर हनुमान उनके लिए संजीवनी बूटी लाने को हिमालय की गोद में स्थित द्रोण पर्वत के लिए रवाना हुआ। उत्तराखण्ड के चमोली जिले में जोशीमठ से करीब 50 किलोमीटर दूर स्थित नीति गांव में यह पर्वत आज भी है। संजीवनी बूटी को पहचान न पाने पर वे पूरे द्रोणगिरि पर्वत को लेकर वापस रवाना हो गये। मार्ग में इस पर्वत का एक हिस्सा टूटकर द्वाराहाट के पास जिस स्थान पर गिरा, वह स्थान ही कालान्तर में द्रोणगिरि (दूनागिरि) कहलाने लगा। इस पर्वत पर आज भी कई तरह की जड़ी-बूटियां पायी जाती हैं। (Dunagiri: The abode of Mata Vaishnavi on Drona mountain of Almora)
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दूनागिरि मन्दिर (Dunagiri Temple) को उत्तराखण्ड के सबसे प्राचीन और सिद्ध शक्तिपीठों में गिना जाता है। जम्मू-कश्मीर में कटरा के पास स्थिति वैष्णो देवी मन्दिर के बाद यह दूसरा वैष्णो शक्तिपीठ माना जाता है। कत्यूरी शासक सुधारदेव ने 1318 ईसवी में इस मन्दिर का निर्माण कर देवी की मूर्ति स्थापित की थी। मन्दिर में शिव और पार्वती के स्वरूप भी विराजमान हैं। देवी पुराण के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पाण्डवों ने युद्ध में विजय और द्रोपदी ने सतीत्व की रक्षा के लिए दूनागिरी (Dunagiri) में देवी के दुर्गा स्वरूप की पूजा की थी। पुराणों, उपनिषदों एवं इतिहासकारों ने दूनागिरि की पहचान माया-महेश्वरी या प्रकृति-पुरुष और दुर्गा कालिका के रूप में की है |
यहां कार पार्किंग के पास प्रसाद की कई दुकानों और रेस्तरां हैं। यहीं से मन्दिर तक जाने की सीढ़ियां शुरू होती हैं जिनकी संख्या करीब 600 बताई जाती है। सीढ़ियों वाले इस रास्ते पर श्रद्धालुओँ को धूप, बारिश और हिमपात से बचाने के लिए टिन शेड बनाए गये हैं। सीढ़ियों के दोनों ओर जाल लगे हैं। बीच-बीच में बाहर की ओर खुलने वाले दरवाजे हैं। यदि किसी श्रद्धालु को सीढ़ियां चढ़ने में परेशानी हो तो उसके लिए सीढ़ियों से बाहर की ओर पक्का रास्ता भी मन्दिर तक जाने के लिए बना हुआ है।
सीढ़ियों वाले रास्ते पर एक सीध में एक ही आकार के तीन-तीन बड़े-बड़े घण्टे लगाए गये हैं। ये सभी घण्टे एक ही आकार के क्यों हैं, इसके बारे में पूछने पर पता चला कि श्रद्धालु अपनी मन्नत पूरी होने पर मन्दिर में छोटे-बड़े जो भी घण्टे चढ़ाते हैं, मंदिर प्रशासन द्वारा उन्हें गलाकर एक ही आकार के घण्टों में ढाल दिया जाता है। जब हम वहां पहुंचे तो नीचे की कुछ सीढ़ियों पर घण्टे लगने बाकी थे।
मन्दिर ट्रस्ट ने पूरे रास्ते में श्रद्धालुओँ के विश्राम करने के लिए बेंच लगवाई हैं और मन्दिर के पास ही एक छोटा-सा पार्क भी बनवाया है। जूते-चप्पलों को रखने, प्रसाधन, हाथ-पांव धोने और विश्राम की भी व्यवस्था है। मुख्य मन्दिर से पहले भगवान विघ्नहर्ता गणेश, रामभक्त हनुमान, भैरव और देवी मैया के मन्दिर हैं।
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हाथ-मुंह धोकर मैंने माता दूनागिरि (Dunagiri Devi) के दर्शन किए और थोड़ी देर मां के सामने बैठे रही। दूनागिरि माता को वैष्णवी रूप में मानने की वजह से यहां बलि देने का निषेध है। यहां तक कि मैया पर चढ़ाया गया नारियल भी यहां नहीं फोड़ सकते। गर्भगृह में धूप-अगरबत्ती जलाने की अनुमति भी नहीं है। मुख्य मन्दिर के पास ही एक स्थान पर धूनी जलती रहती है जहां तेल का दीपक, धूप और अगरबत्ती को जला सकते हैं। देवी के अन्य मन्दिरों की भांति यहां भी अखण्ड ज्योति जलती रहती है। मुझे मां दूनागिरि के दर्शन करने का सौभाग्य पांचवीं बार प्राप्त हुआ। खास बात यह कि उत्तराखण्ड के मन्दिरों में जाकर असीम शान्ति का अनुभव होता है। इसका कारण आध्यात्मिकता के साथ-साथ यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य, मौसम और वातावरण भी हो सकते हैं।
मुख्य मन्दिर से थोड़ा नीचे उतरने पर एक बड़ा झूला है जिसे पार्वती झूला कहा जाता है। बच्चों के झूलने के लिए भी यहां अनेक झूले हैं, जिन पर झूलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। यहां से हरेभरे पहाड़ों के परिदृश्य देखकर मन झूम उठता है। लगता है स्वर्ग यहीं पर है। वैसे तो उत्तराखण्ड के प्रत्येक स्थान का अपना अद्भुत सौन्दर्य है किन्तु कुछ ऐसे स्थान हैं कि जिन्हें देखकर लगता है कि विधाता ने सचमुच स्वर्ग की रचना यहीं की है।
मुख्य मन्दिर से कुछ ही सीढ़ियां नीचे उतरने पर समतल स्थान पर एक वृक्ष है जिसके नीचे पक्षियों के लिए दाना डाला जाता है। इस पेड़ पर सैकड़ों पक्षी रहते हैं। वे लगातार कलरव करते हुए नीचे उतरकर दाना चुगते हैं। इन पक्षियों का मधुर कलरव श्रद्धालुओं का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है।
मन्दिर के प्रबन्धन और रख-रखाव का कार्य आदिशक्ति मां दूनागिरि ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। मन्दिर से कुछ ही नीचे ट्रस्ट द्वारा ही साल के 365 दिन सायंकाल लगभग चार बजे तक भण्डारे का प्रबन्ध किया जाता है। यहां पहुंचकर हमने सायं करीब साढ़े तीन बजे प्रसाद ग्रहण करने के साथ ही अपने साथ लाया भोजन भी किया। प्रसाद देने वाले सेवक अत्यन्त प्रेमपूर्वक भोजन करा रहे थे।
सायंकाल चार बजे हम दूनागिरि (Dunagiri) मैया को प्रणाम कर उनकी जय-जयकार करते हुए अगले पढ़ाव की रवाना हो गये। बिन्ता, बग्वाली पोखर और गगास पुल होते हुए हमें कुमाल्ट जाना था। कुमाल्ट मेरा मायका है। कफड़ा स्टेशन पर मेरा छोटा भाई महेश हमारा इन्तज़ार कर रहा था। वहां मेरी बहन और उसका परिवार महेश से मिलकर अल्मोड़ा की ओर चल दिए और मैं कुमाल्ट की ओर।
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छाया चित्रः रक्षित कार्की, हिना कार्की, दीपिका त्रिपाठी, प्रियंका त्रिपाठी और प्रखर त्रिपाठी।