Thu. Oct 30th, 2025
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धार्मिक कारणों से न सही, स्वास्थ्य कारणों से ही आप उपवास या रोजा रखिए। लेकिन, उपवास को उपवास की तरह ही रखिए न कि व्रत-उपवास के नाम पर दिनभर तरह-तरह की चीजें खाते रहें।

पंकज गंगवार

यूं तो सभी धर्मों में उपवास किसी न किसी रूप में किया जाता है लेकिन जो धर्म भारत की धरती पर जन्मे और फले-फूले या यूं कहें कि जिनका मूल सनातन धर्म है, उनमें व्रत-उपवास का कुछ ज्यादा ही महत्व है। अपने यहां अगर कोई व्यक्ति सारे व्रत-उपवास रखे तो साल के आधे दिन तो व्रत-उपवास में ही निकल जाएंगे। कभी कोई एकादशी, कभी अमावस्या तो कभी शिव तेरस, पता नहीं कितने बहाने हैं हमारी संस्कृति में उपवास रखने के और सनातन संस्कृति से जुड़े हुए धर्मों में सबसे ज्यादा व्रत-उपवास रखते हैं जैनी लोग।

व्रत-उपवास का जो भी धार्मिक महत्व है, उसके बारे में तो मुझे ज्यादा पता नहीं है और यह इस आलेख का उद्देश्य भी नही है। लेकिन, व्रत-उपवास किस तरह हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं और इनका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसके बारे में मैं जरूर यहां चर्चा करूंगा।

पहले तो मैं यह बताऊंगा कि आखिर भारत की धरती पर ही इतने व्रत-उपवास क्यों हैं। इसका कारण मुझे यह जान पड़ता है कि हम प्राचीन समय से ही भरीपूरी, खाई-अघाई सभ्यता रहे हैं। इसका कारण भौगोलिक है। अपने देश में हर तरह की जलवायु है। नदियों की उपजाऊ मिट्टी से बने मैदान हैं जिन पर हर तरह के अनाज, फल और सब्जियां आसानी से उग जाते हैं। प्राचीन समय में आबादी बहुत कम थी तो खाद्यान्न की इतनी समस्या न थी। हमारी धरती यहां के लोगों की भोजन की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम थी, भुखमरी नहीं थी। हमारी संस्कृति में उपवास इसलिए नहीं आया है कि खाने-पीने की किसी तरह की कमी थी बल्कि यहां व्रत-उपवास की परम्परा ज्यादा भरे हुए पेट की वजह से शुरू हुई।

भारत में जैन लोग सबसे ज्यादा व्रत-उपवास करते हैं तो इसका कारण यही है कि जैनी प्राचीन समय से ही समृद्ध रहे हैं। उनके धार्मिक विश्वासों ने उन्हें खेतीबाड़ी करने से रोक दिया तो वे व्यवसाय में आ गए और व्यवसायी आदमी संपन्न होता ही है। इसलिए जैनियों ने व्रत-उपवास के सबसे ज्यादा बहाने ढूंढे हैं।

व्रत-उपवास के फायदे आज पश्चिम का विज्ञान भी बता रहा है। वहां बाकायदा इस पर मोटी-मोटी किताबें लिखी जा रही हैं कि व्रत-उपवास किस तरह किये जाएं। वहां उपवास की तरह-तरह की पद्धतियां बताई जा रही हैं। कई तरह के उपवास चल रहे है। मजेदार बात यह है कि जितने भी तरीके वे बता रहे हैं, वे सब हमारे यहां पहले से ही प्रचलित हैं।

भारत में एक कहावत है,“तीन बार खाये रोगी, दो बार भोगी और एक बार खाए योगी।”आज अमेरिका में किताब लिखी जा रही है “हाउ टू ईट वंस ए डे”। यानी पश्चिम के गोरे भी आज कह रहे हैं कि दिन में एक बार खाना ही ठीक है। पहले वे लोग कहते थे कि दिनभर थोड़ा-थोड़ा खाते रहना चाहिए लेकिन आज कह रहे हैं कि जितना खाना है एक बार में खा लो, ज्यादा से ज्यादा दो बार में खा लो, बाकी समय खाली रखो पेट को और बाकायदा इसके पीछे उनकी रिसर्च है विज्ञान है।

The complete guide to fasting
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आज विज्ञान कह रहा है कि हम लोग जितनी ज्यादा मात्रा में भोजन कर रहे हैं, उतना खाने के लिए हमारा शरीर और पाचन तंत्र डिजाइन ही नहीं हुए हैं। जब खेतीबाड़ी शुरू नहीं हुई थी और हमारे पूर्वज जंगलों में रहते थे, तब उनके लिए पर्याप्त भोजन हर समय उपलब्ध नहीं था, इसलिए उन्हें कई-कई दिन भूखा रहना पड़ता था। उसी हिसाब से हमारा शरीर डिजाइन है। लेकिन, आज हर समय भोजन उपलब्ध है। आज ज्यादा खाना ही हमारी स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न समस्याओं का बड़ा कारण है। डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, ह्रदय के विभिन्न रोग और पेट की समस्याओं के पीछे हमारा ज्यादा भोजन करना ही है। इसलिए आप स्वस्थ रहना चाहते है तो अपने पूर्वजों की तरह बीच में एक-एक दिन भूखा रहना शुरू करिए।

हम सब जानते हैं हमारे शरीर को ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट से मिलती है और जब यह ऊर्जा शरीर में ज्यादा हो जाती है तो ग्लाइकोजन के रूप में यकृत (Liver) में इकठ्ठा हो जाती है। अगर इसके उपयोग की नौबत नहीं आती तो शरीर इसको वसा यानी चिकनाई के रूप में इकट्ठा कर लेता है। यह ऐसा ही है कि जब हमारे घर में ज्यादा भोजन आ जाता है तो हम उसको उठाकर अपने फ्रिज में रख देते हैं। लेकिन, यदि हमारे घर में लगातार इतना ज्यादा भोजन आता रहे औऱ हमारा फ्रिज भी भर जाए तो हम उस खाद्य सामग्री को प्रसंसकरित कर घर में इकट्ठा करेंगे। और यदि हमारे परिवार को इस अतिरिक्त संरक्षित किये गए भोजन की जरूरत ही ना पड़े तो क्या होगा? यह भोजन खराब होने लगेगा और हमारे घर में दुर्गन्ध फैलने लगेगी। ऐसा ही हमारे शरीर में हो रहा है। हमारे यकृत में जमा ग्लाइकोजन और शरीर में जमा वसा उन दिनों के लिए होती है जब हमें कोई भोजन नहीं मिलता। इन दिनों में शरीर स्टोर किए गए ग्लाइकोजन और वसा से ही काम चलाता है। जब हमें 12 घंटे से अधिक समय तक कोई भोजन नहीं मिलता है तो शरीर इस जमा स्टॉक में से ऊर्जा लेने लगता है, यानी कि वसा टूटनी शुरू हो जाती है। इस प्रक्रिया को कीटॉसिस बोलते हैं। इसीलिए 24 घंटे का उपवास रखने को कहा जाता है। आजकल एक पद्धति और लोकप्रिय हो रही है कि अगर हम रोज अपने पेट को 16 घंटे खाली रखें तब भी हम उपवास का फायदा ले सकते हैं। इसको इंटरमिटेंट फास्टिंग कहा गया है, यानी कि एक बार में लंबा उपवास न करके बीच-बीच में छोटे-छोटे उपवास करना।

रमजान भी एक तरह की इंटरमिटेंट फास्टिंग है। संभवतः अभी यह करीब 12-13 घण्टे की फास्टिंग है लेकिन यदि इसको 16 घंटे खींचा जा सकता तो यह स्वास्थ्य के लिहाज से ज्यादा कारगर हो जाएगी क्योंकि 12 घण्टे में कीटॉसिस प्रक्रिया सिर्फ शुरू ही होती है, चार अतिरिक्त घण्टे मिलने पर कीटॉसिस प्रक्रिया और तेज हो जाएगी।

धर्माचायों को इस प्रक्रिया की जानकारी थी, इसलिए व्रत-उपवास शुरू किए गए, इस बारे में मुझे जानकारी नहीं है। मेरे लिए यह किसी संगठित धर्म से जुड़ी हुई बात भी नहीं है। मेरे हिसाब से उपवास की समझ आदिम मनुष्य के प्रकृति के साथ तालमेल की वजह से विकसित हुई। समय के साथ इसको धार्मिक कर्मकांडों से जोड़ दिया गया ताकि लोग इसका नियम से पालन करते रहें।

मैंने कहीं पढ़ा था कि अरब के रेगिस्तानी क्षेत्र में रोजा रखने की परम्परा इस्लाम के आने से पहले भी थी। यह वहां की आदिम संस्कृति का हिस्सा है ना कि सिर्फ इस्लामिक संस्कृति का। रमजान की परम्पराएं अरब की जलवायु के हिसाब से ज्यादा डिज़ाइन हैं क्योंकि अरब में दिन अत्यधिक गर्म होते हैं और रातें आरामदायक और ठंडी। ऐसे में दिन में उपवास और आराम करना ज्यादा सुविधाजनक है।

भारत में मौसम तेजी से बदलते हैं। नवरात्र वर्ष में दो बार आते हैं। एक बार तब जब सर्दियां खत्म हो चुकी होती हैं और हम गर्मी का स्वागत कर रहे होते हैं और दूसरी बार तब जब बरसात खत्म हो चुकी होती है और हम सर्दियों के आगमन की तैयारी कर रहे होते हैं। ये दोनों ही समय दो ऋतुओं का संधिकाल हैं। मौसम बदलने के साथ ही शरीर में भी तेजी से परिवर्तन होते हैं। आप सब जानते हैं जब मौसम बदलता है तो हम सभी को समस्याएं होने लगती हैं। ऐसे समय में ही नवरात्र आते हैं ताकि हम अपने शरीर की शुद्धि कर उसको आने वाली ऋतु के लिए तैयार कर सकें।

मनुष्य तो मनुष्य मैंने पशुओं को भी उपवास करते हुए देखा है। घर के कुत्ते भी बीच-बीच में एक-आध दिन खाना नहीं खाते हैं। कोई भी पशु बीमार होने पर सबसे पहले भोजन छोड़ता है ताकि उसकी अंदर की उर्जा का उसके शरीर को सही करने में प्रयोग हो सके।

हम लोग अभी तक यह सुनते आए हैं कि ज्यादा पानी पीना शरीर के लिए अच्छा होता है। जितना ज्यादा पानी पिएंगे उतना ही शरीर स्वस्थ रहेगा। लेकिन, नई रिसर्च यह बता रही है कि जिन चूहों को कम पानी दिया गया उनकी उम्र उन चूहों की तुलना में ज्यादा रही जिन्हें पर्याप्त मात्रा में पानी दिया गया था। वैज्ञानिक आज कह रहे हैं कि हमें कुछ दिन बिना पानी के भी रहना चाहिए। संभवतः इसी वजह से भारतीय परम्परा में साल में कुछ निर्जल उपवास भी रखे जाते हैं।

आज की जीवनशैली में शायद ही ऐसा कोई दिन होता है जिस दिन हमें भोजन न मिलता हो। तो ऐसे में तीज-त्यौहार व्रत-उपवास या रोजा रखने के अच्छे बहाने हैं। धार्मिक कारणों से न सही, स्वास्थ्य कारणों से ही आप उपवास या रोजा रखिए। लेकिन, उपवास को उपवास की तरह रखिए न कि उपवास के नाम पर दिनभर तरह-तरह की चीजें खाते रहें।

((लेखक पोषण विज्ञान के गहन अध्येता होने के साथ ही न्यूट्रीकेयर बायो साइंस प्राइवेट लिमिटेड (न्यूट्री वर्ल्ड) के चेयरमैन भी हैं))

 

9 thought on “व्रत-उपवास का विज्ञान”
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