देश की शीर्ष अदालत ने कानून को एकसमान लागू करने पर जोर देते हुए कहा कि जो भी व्यक्ति नौकरी करता है वह टैक्स के अधीन है। दरअसल, नन और पादरियों को अंग्रेजों के समय में बनाए गए एक कानून के आधार पर अब तक टैक्स में छूट मिल रही है।
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने उन 93 याचिकाओं को खारिज कर दिया जिनमें कैथोलिक चर्चों की नन और पादरियों के वेतन पर लगने वाली कर कटौती (tax deduction) को चुनौती दी गई थी। शीर्ष अदालत ने कहा कि नियम सबके लिए समान हैं। अगर मंदिर में भी पुजारियों को नियुक्त किया जाए तो उन्हें वेतत दिया जाएगा और टैक्स भी काटा जाएगा।
मुख्य न्यायाधीश (अब निवर्तमान) डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायामूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कुछ दिन पहले यह फैसला सुनाया। ये याचिकाएं मद्रास हाई कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ दाखिल की गई थीं जिसमें नन और पादरियों के वेतन पर टैक्स डिडक्शन एट सोर्स (TDS) लगाना अनिवार्य बताया गया है।
कैथोलिक धार्मिक संगठनों का कहना था कि मिशन में काम करने वाले लोग (नन और पादरी) सिविल डेथ की स्थिति में रहते हैं। यानी वे गरीबी की शपथ ले चुके होते हैं। वे न तो विवाह कर सकते हैं, न ही अपनी प्रॉपर्टी बना सकते हैं। सिविल डेथ की स्थिति में यह भी है कि अगर नन या प्रीस्ट के परिवार की मौत हो जाए तो भी वह अपनी विरासत पर कोई हक नहीं जता सकते/सकती। वे खुद को परिवार से अलग और अकेला मान सकते हैं।
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वकील ने दलील दी कि नन और पादरी सहायता प्राप्त संस्थानों में पढ़ाकर जो वेतन पाते हैं वह कॉन्वेंट को सौंप दिया जाता है, इसलिए उनका वेतन अपना नहीं रहता है। इस पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि वेतन तो उनके पर्सनल अकाउंट में ट्रांसफर किया जाता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने आगे कहा, “उन्हें वेतन दिया जाता है लेकिन उन्होंने यह जीवन चुना है और वह कहते हैं कि मैं यह वेतन नहीं लूंगा/लूंगी क्योंकि परिश में रहने पर वह पर्सनल इनकम नहीं रख सकते… लेकिन यह वेतन पर लगने वाले कर को कैसे प्रभावित कर सकता है? टीडीएस तो काटा ही जाएगा?” उन्होंने कानून को एकसमान लागू करने पर जोर देते हुए कहा कि जो भी व्यक्ति नौकरी करता है वह टैक्स के अधीन है।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि अगर कोई हिंदू पुजारी कहे कि मैं वेतन नहीं लूंगा और उसको किसी संगठन को दे दूंगा… तो यह उनकी मर्जी है लेकिन अगर कोई व्यक्ति नौकरी करता है और वेतन लेता है तो उसको टैक्स देना होगा। कानून सबके लिए एक बराबर है, आप यह कैसे कह सकते हैं कि टीडीएस न काटा जाए।
सुनवाई के दौरान वकील ने यह भी कहा कि केरल हाई कोर्ट ने अपने कुछ फैसलों में कहा कि पादरी और नन की मृत्यु होने पर उनका परिवार मोटर व्हीकल एक्ट के तहत मुआवजे का अधिकार नहीं है। इस पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने उन्हें बताया कि क्योंकि पादरी और नन अपने परिवार से रिश्ता खत्म करके संन्यासी बन जाते हैं इसलिए उनके परिवार को इसका अधिकार नहीं। हालांकि टैक्स का मुद्दा अलग है।
क्या है टैक्स विवाद?
भारत में नन और पादरियों को आयकर में छूट देने का नियम 40 के दशक में शुरू हुआ था जब यहां ब्रिटिश राज था। तब कहा गया कि चूंकि यह तबका समाज की भलाई के लिए काम कर रहा है, इसलिए उसपर इतनी रियायत होनी ही चाहिए। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने इस भेदभावपूर्ण नियम यानी वेतन में टैक्स छूट को जारी रखा। बाद में इसे औपचारिक जामा भी पहना दिया गया। वर्ष 2014 में इसे हटाने की बात आई जिसके खिलाफ कई राज्यों की धार्मिक संस्थाओं ने अर्जी डाली थी। अब सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इन याचिकाओं को रद्द करते हुए साफ कर दिया कि धार्मिक तर्क के आधार पर ऐसी छूट नहीं मिल सकती।