Madmaheshwar Temple: मद्महेश्वर क्षेत्र हिमालय के बिल्कुल पास है और यहां सर्दी के मौसम में हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड पड़ती है। मई से अक्टूबर के बीच यहां की यात्रा करने के लिए सबसे अच्छा समय है। मन्दिर नवम्बर से अप्रैल के बीच बन्द रहता है। मद्महेश्वर मन्दिर को “मदमाहेश्वर” के नाम से भी जाना जाता है| इस मन्दिर में पूजा करने के बाद केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ और कल्पेश्वर धाम की यात्रा की जाती है|
प्रकाश नौटियाल
उत्तराखण्ड के चार धामों बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के बारे में तो सभी ने सुना होगा पर यहां एक ऐसा धाम भी है जहां भगवान शिव की नाभि की पूजा होती है। खूबसूरत वादियों के बीच स्थित इस धाम को मद्महेश्वर (Mahamaheshwar) के नाम से जाना जाता है। इसका केदारनाथ से गहरा नाता है। मान्यता है कि जो भी श्रद्धालु इस मन्दिर में सच्चे मन से ध्यान लगाता है, उसे शिव के परम धाम में स्थान मिलता है। रुद्रप्रयाग जिले के उखीमठ ब्लॉक में समुद्र की सतह से 3,497 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मदमहेश्वर मन्दिर (Mahamaheshwar Temple) के बारे में हमने केवल सुना था, दर्शन का सौभाग्य अब तक नहीं मिला था। यहां की यात्रा की योजना एकाएक ही बनी।
गढ़ कवि देवेन्द्र उनियाल ने बताया कि एक दिन रोटरी क्लब श्रीकोट (श्रीनगर गढ़वाल) के पूर्व अध्यक्ष नरेश नौटियाल का फोन आया, “उनियाल जी, मेरे यहां आना, काम है, आपसे बात करनी है।” कुछ देर के लिए तो मैं सोच में पड़ गया कि इस समय क्या काम हो सकता है। दोपहर में मैं उनसे मिला। नौटियाल जी ने कहा, “उनियाल जी कल मद्महेश्वर चलना है, आपका क्या विचार है?” मैने कुछ पल सोचा और हां कर दी। घर आकर परिवार को सूचित किया। थोड़ी-बहुत तैयारी की, शीत अवरोधक कपड़े बैग में रखे और 11 जून 2023 को सुबह 05:30 बजे श्रीकोट से मद्महेश्वर के लिए रवाना हो गये।
हम कुल पांच लोग थे- नरेश नौटियाल, मणिराम नौटियाल, बसवानन्द नौटियाल, अनूप घिल्डियाल और मैं स्वयं (देवेन्द्र उनियाल)। रुद्रप्रयाग बाईपास, तिलवाड़ा, अगस्त मुनि, विजय नगर और उखीमठ होते हुए हम करीब नौ बजे रांशि पहुंच गये। तेज भूख लग रही थी क्योंकि हम सभी सुबह बिना नाश्ते किये घर से निकले थे। रांशि में हमने एक होटल में नाश्ता किया जहां अनूप घिल्डियाल ने भी अपनी पाककला का प्रदर्शन करते हुए किचन में जाकर मदद की। आलू की सब्जी और रोटी का नाश्ता हुआ। होटल मालिक जगत सिंह पवार से विदा लेकर हम अगतोलीधार की तरफ चल पड़े। यहीं पर एक बालक से मुलाकात हुई जो पत्थर की रोडी तोड़ रहा था। हमने सोचा शायद कोई नेपाली होगा क्योंकि यहां के निर्माण कार्यों मे नेपाली मूल के लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बातों-बातों में पता चला कि यह बालक श्रीनगर में पढ़ाई कर रहा है और आजकल छुट्टियां होने के कारण घर आया हुआ है। उसने बताया कि यहीं पर उसका छोटा-सा होम स्टे है और यहां वह अपना होटल बना रहा है। इसके लिए ईंटें उसने स्वयं तैयार की हैं। उसके पिताजी पोर्टर का काम करते हैं और फिलहाल कुछ पर्यटकों को लेकर यात्रा पर गये हैं। उसकी मासूमियत भरी बातों को सुनकर और उसकी मेहनत देखकर बहुत अच्छा लगा। उससे विदा लेकर हम आगे बढ़ गये।
अगतोलीधार पहुंच कर हमने अपनी कार सड़क किनारे पार्क की और मद्महेश्वर के लिए पैदल चल पड़े। यहां पर लगे साइन बोर्ड पर दर्शाया गया था- मद्महेश्वर 17 किलोमीटर। अगली चट्टी गोण्डार यहां से 4.5 किमी दूर थी। अगतोलीधार से दो किमी की उतराई उतरने के बाद हमें एक झरना मिला। कुछ बच्चे उसमें स्नान कर रहे थे। कुछ देर वहां रुक कर हम आगे की यात्रा पर चल पड़े। इस बीच घिल्डियाल जी ने अपने बैग से एक छोटी-सा किट निकाली जिसमें नींबू, काला नमक, चॉकलेट, टॉफी आदि थे जिसे वह समय-समय पर हम लोंगो को देते जा रहे थे। रास्ते भर बातें करते हुए हम मधुगंगा की कल-कल, छल-छल की ध्वनि के साथ आगे बढ़ रहे थे। दोपहर लगभग एक बजे गोंडार पहुंच गये। यह काफी बड़ा गांव है। शाक-सब्जी खूब होती है। हम एक दुकान पर रुके। यहां पर बीए की छात्रा सपना से मुलाकात हुई जो दुकान में अपनी मां का सहयोग कर रही थी। पढ़ाई के साथ रोजगार भी करना बहुत अच्छी बात है। यहां पर एक बात बहुत अच्छी है कि पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी अपना रोजगार सम्भाला हुआ है। सपना ने हमसे खाने का आग्रह किया किन्तु लौटते समय भोजन का वादा करके हम आगे बढ़ गये। हालांकि लौटते वक्त उससे मुलाकात ना हो सकी।
दिल्ली के पर्यटकों का मिला साथ (Joined together by tourists from Delhi)
अब खड़ी चढाई थी। 1.5 किमी चलने के पश्चात हम बनतोली चट्टी पहुंचे। खड़ी चढाई पर हम कछुआ चाल चल रहे थे। इस दौरान हम लोकगायक गोपाल सिंह नेगी का गीत, “ना दौड़ तैउन्दरी का बाटा” गुनगुनाते रहे। इसी दौरान घिल्डियाल जी ने छड़ी की व्यवस्था की क्योंकि चढाई पर चलना मुश्किल हो रहा था। आने-जाने वाले लोग मद्महेश्वर महाराज की जय-जयकार करने के साथ ही एक-दूसरे का अभिवादन कर रहे थे। खदरा पहुंचने तक हम लगभग आधा दूरी तय कर चुके थे। हमारे एक साथी हमसे पहले आगे पहुंच गये थे और हमारे पहुंचने से पहले भोजन की व्यवस्था कर दी थी। थोडी देर आराम करने के बाद हमने भोजन किया। भूख और थकान ने भोजन का स्वाद कई गुना बढा दिया था। सामने लगा साइन बोर्ड दर्शा रहा था कि मद्महेश्वर यहां से नौ किलोमीटर दूर है। साढ़े तीन बजे हमने आगे की यात्रा शुरू की। अब चढ़ाई और भी कठिन प्रतीत हो रही थी। नानू मैखम्बा होते हुए हम सायंकाल करीब सात बजे कून चट्टी पहुंच गये। यहां पर कुछ भेड़ पालको के टैंट लगे हुए थे। काफी थकान महसूस हो रही थी। हल्की बूंदाबांदी की वजह से तापमान गिर कर 10 डिग्री तक लुढ़क गया था। सर्दी से राहत पाने के लिए हमने स्वेटर, जैकेट आदि निकाल लिये। यहां फोन की कनेक्टिविटी नहीं थी।
मद्महेश्वर (Mahamaheshwar) की यह आखिरी चट्टी थी। यहां से खडी चढ़ाई शुरू हो गयी। धीरे-धीरे अंधेरा बढ़ने लगा। पांवों ने जबाब देना शुरू कर दिया। चार-पांच कदम चलना भी मुश्किल लग रहा था। कभी-कभी सूखे पत्तों की सरसराहट अन्धेरे की निस्तब्धता तोड़ रही थी। बांज के घने जंगल में अंधेरा और भी गहरा लगने लगा। हम मोबाइल फोन की रोशनी में आगे बढ़ रहे थे कि अचानक दिल्ली से आये दो पर्यटक मिल गये। उनके पास रोशनी की पूर्ण व्यवस्था थी। अब हम सात लोग हो गये। हमने ईश्वर को धन्यवाद दिया। अगर दिल्ली के ये पर्यटक नहीं मिलते तो यकीनन अंधेरे में चलना मुश्किल हो जाता। हम सभी पांच-दस कदम चलने के बाद बैठ जाते। मैं सोच रहा था कि मनुष्य के चक्कर में भगवान कितनी दूर आकर बस गये हैं, फिर भी मनुष्य वहां पहुंच जाते हैं। अचानक चढाई समाप्त हो गयी।
मदमहेश्वर मन्दिर नजदीक आते ही थकान दूर (Tiredness goes away as soon as Madmaheshwar temple comes near)
रात के अन्धकार में दूर से आती कुत्तों के भौंकने की आवाज ने निस्तब्धता को तोडा तो आशा की किरण जाग उठी। हम सब रुक गये। सबने एक साथ कहा, “शायद मदमहेश्वर मन्दिर (Mahamaheshwar Temple) आ गया है।” यहां से मन्दिर की रोशनी दिखाई दी जिसे देख कर हम सभी में नयी उर्जा का संचार होने लगा। साऱी थकान दूर हो गयी। पहले जहां कदम बढ़ नहीं रहे थे, अब लम्बे-लम्बे डग भरने लगे। पांच सौ मीटर समतल में चलने के पश्चात हम रात्रि करीब साढ़े नौ बजे मद्महेश्वर मन्दिर पहुंच गये। यहां अभी तक बिजली की लाइनें नहीं पहुंची हैं पर मन्दिर सौर उर्जा की रोशनी से जगमगा रहा था।
सूर्योदय का दृश्य कैद करने को लगी भीड़ (Crowd gathered to capture the sunrise)
दर्शन-पूजन के बाद थकान के कराण हमें जल्द ही नींद आ गयी। अगले दिन सुबह पांच बजे हम बूढ़ा मद्महेश्वर (Budha Madmaheshwar) की ओर चल दिये। मखमली बुग्यालों के रास्ते में कई प्रकार के फूलों से सजा एक बुग्याल ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो प्रकृति ने शामियाना लगा रखा हो। एक घण्टे की चढ़ाई चढ़ने के बाद हमें एक छोटा-सा मन्दिर दिखाई दिया। चारों तरफ विस्तृत हरा बुग्याल ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बिछौना बिछा हो। छोटे-छोटे फूलों और अनगिनत जड़ी-बूटियों से भरा यह बुग्याल हिमच्छादित पहाडियों से घिरा हुआ है। यहीं पर एक छोटी-सी कुटिया में बूढ़े मद्महेश्वर (Budha Madmaheshwar) विराजमान हैं। सामने एक तालाब था जिसमें पड़ता मन्दिर का प्रतिबिम्ब मन मोह रहा था। तीर्थयात्रियों की भीड़ बढ़ती जा रही थी क्योंकि कुछ ही समय पश्चात सूर्य भगवान उदित होने वाले थे। श्रद्धालु इस अद्भुत दृश्य को देखने का अवसर चूकना नहीं चाहते थे। चारों तरफ लगे देवदार और भोजपत्र के वृक्ष ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो सिपाही की भांति मन्दिर की रक्षा कर रहे हों। हिमाच्छादित चोटी के पीछे से उदित होते हुए सूर्यदेव ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे अंगूठी में हीरा जड़ा हो। श्रद्धालु इस दृश्य को अपने-अपने कैमरों में कैद कर रहे थे। हमने भी इस दृश्य को देखकर वृद्ध मद्महेश्वर को प्रणाम किया।
मद्महेश्वर (Mahamaheshwar) में अपने कमरे में वापस आकर हम स्नान आदि से निवृत्त हुए, पूजा-अर्चना के लिए एक सामूहिक थाली ली और मन्दिर प्रांगण में बैठ गये। वेदपाठी वेद की ऋचाओं से वातावरण को गुंजायमान कर रहे थे। घण्टियों और शंख की ध्वनि कानों में मिठास घोल रही थी। एक अलग ही तरह के आनन्द की अनुभूति हो रही थी। इसी बीच रावल जी ने प्रांगण में बैठे श्रद्धालुओं को अन्दर आने का संकेत किया। एक बार में कुछ श्रद्धालु ही अन्दर जा सके। जो छूट गये थे, उन्हें अगले चरण में बुलाया गया। रावल जी ने पंचांग पूजा कराने के उपरन्त भगवान मद्महेश्वर (Madmaheshwar) की कथा श्रवण कराई।
पूजा-अर्चना के पश्चात हम सभी लोग अपने डेरे पर आये और अपना-अपना समान समेटा। यहां एक जगह हमने नाश्ता किया। यहां की खास बात यह है कि महिलाएं भी व्यवसाय में सक्रिय भूमिका निभाती हैं। नाश्ता करने के बाद हमने सभी से विदा ली, भगवान मद्महेश्वर को एक बार फिर प्रणाम किया और वापसी की यात्रा शुरू कर दी।
मद्महेश्वर क्षेत्र हिमालय के बिल्कुल पास है और यहां सर्दी के मौसम में हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड पड़ती है। मई से अक्टूबर के बीच यहां की यात्रा करने के लिए सबसे अच्छा समय है। मन्दिर नवम्बर से अप्रैल के बीच बन्द रहता है।
इसलिए कहा जाता है पंचकेदार (That is why it is called Panchkedar)
मद्महेश्वर मन्दिर (Mahamaheshwar Temple) को “मदमाहेश्वर” के नाम से भी जाना जाता है| इस मन्दिर में पूजा करने के बाद केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ और कल्पेश्वर धाम की यात्रा की जाती है| इस मन्दिर को पाण्डवों द्वारा निर्मित माना जाता है। यह भी माना जाता है कि भीम ने भगवान शिव की पूजा करने के लिए इस मन्दिर का निर्माण किया था। मन्दिर के प्रांगण में स्थित “मध्य” (“बैल का पेट” या “नाभि”) को भगवान शिव का दिव्य रूप माना जाता है। काले पत्थर से बना नाभि के आकार का शिव-लिंगम पवित्र स्थान में स्थित है। दो अन्य छोटे तीर्थ हैं, पहला शिव-पार्वती का है जबकि दूसरा अर्धनारीश्वर को समर्पित है। मुख्य मन्दिर के दाहिनी ओर एक छोटा मन्दिर है जिसके गर्भगृह में संगमरमर से बनी देवी सरस्वती की मूर्ति है। इस मन्दिर की रजत मूर्तियों को सर्दियों में उखीमठ में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। मन्दिर परिसर के पानी को अत्यधिक पवित्र और इसकी कुछ बूंदों को स्नान के लिए पर्याप्त माना जाता है। यहां पुजारी दक्षिण भारत के होते हैं। यह महत्वपूर्ण पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है जिसे पंचस्थली (पांच जगह) सिद्धान्त के आधार पर वर्गीकृत किया गया है।
मद्महेश्वर मन्दिर (Mahamaheshwar Temple) को भगवान शिव के पंचकेदार में से एक माना जाता है। पंचकेदारों में भगवान शिव के विभिन्न अंगों की पूजा की जाती है। शिव पुराण के अनुसार महाभारत के युद्ध के पश्चात पाण्डव अपने पापों से मुक्ति चाहते थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उनको सलाह दी थी कि वे भगवान शंकर का आशीर्वाद प्राप्त करें। इस पर पाण्डव भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वाराणसी गये। गोत्र हत्या के दोषी पाण्डवों से भगवान शिव नाराज थे और उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे। इसलिए वे गुप्तकाशी में छुप गये। पाण्डव उन्हें खोजते हुए गुप्तकाशी भी पहुंच गये तो शिवजी ने बैल का रूप धारण कर लिया। पाण्डवों ने उन्हें पहचान लिया और उनका पीछा करने लगे। बैल ने अपनी गति बढ़ानी चाही तो भीम उसको पकड़ने दौड़े। यह देख शिव रूपी बैल ने स्वयं को धरती में छुपाना चाहा। ज्यों ही बैल का अग्र भाग धरती में समाया, भीम ने उसकी पूंछ पकड़ ली। इस पर बैल के पीछे का भाग पिण्ड के रूप में केदारनाथ में विद्यामान हो गया। बैल का अगला भाग सुदूर हिमालय में जिस स्थान पर जमीन से बाहर निकला, वह अब काठमाण्डू कहलाता है और भगवान शिव वहां पशुपतिनाथ के रूप में विराजमान हैं। बैल का शेष भाग यानी पांव तुंगनाथ में, नाभी या मध्य भाग मद्महेश्वर में, मुख रुद्रनाथ में और जटाएं कल्पेश्वर में निकलीं। पशुपतिनाथ नेपाल में हैं जबकि बाकी उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में जिन्हें पंच केदार कहा जाता है। पंच केदार मन्दिरों का निर्माण उत्तर-भारतीय हिमालयी मन्दिर वास्तुकला के अनुसार किया गया है। इनमें केदारनाथ, तुंगनाथ और मद्महेश्वर मन्दिर समान दिखते हैं। मद्महेश्वर मन्दिर उच्च हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं में चौखम्बा (शाब्दिक अर्थ चार स्तम्भ या चोटियां), नीलकंठ और केदारनाथ की बर्फीली चोटियों से घिरी एक हरीभरी घाटी में है।
ऐसे पहुंचें मदमहेश्वर (How to reach Madmaheshwar)
वायुमार्ग : निकटतम एयरबेस देहरादून का जॉली ग्रान्ट हवाईअड्डा मद्महेश्वर से करीब 244 किलोमीटर दूर स्थित है।
रेल मार्ग : गौण्डार (मद्महेश्वर) गांव का निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेशऊखीमठ से 181 किमी दूर है। ऋषिकेश से बस या टैक्सी लेकर उखीमठ पहुंचने के बाद वहां से मन्दिर के लिए ट्रैकिंग शुरू कर सकते हैं।
सड़क मार्ग : उत्तराखण्ड परिवहन निगम के साथ ही निजी बस सेवाएं भी मद्महेश्वर को आसपास के शहरों से जोड़ती हैं। दिल्ली के आनन्द विहार अन्तरराज्यीय बस टर्मिनल से बस पकड़ कर हरिद्वार, ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग होते हुए उखीमठ पहुंच सकते हैं।
(देवेन्द्र उनियाल, नरेश नौटियाल, मणिराम नौटियाल, बसवानन्द नौटियाल और अनूप घिल्डियाल से प्रकाश नौटियाल की बातचीत पर आधारित रिपोतार्ज)