मशहूर घुमक्कड़ और पर्यावरण एवं सामाजिक कार्यकर्ता संजीव जिन्दल उर्फ “साइकिल बाबा” अपनी आदत के अनुसार एक बार फिर पिट्ठू बैग लेकर घर से निकल लिये और पहुंच गये हिमाचल प्रदेश। यहां उनकी पहली मन्जिल था मैक्लोडगंज और फिर ट्रायण्ड पर्वत (Triand mountain)। इस यात्रा को उन्होंने बहुत ही खूबसूरती से शब्दों में बांधा है। मानवीय रिश्तों को बयां करते इस रिपोतार्ज के कुछ सम्पादित अंश…
हैदराबाद में बैंक में नौकरी करने वाले उस जोड़े ने ट्रायण्ड पर्वत (त्रिउण्ड पर्वत) की चढ़ाई सुबह नौ बजे शुरू की थी और मैंने 10 बजे। लगभग 12 बजे दोनों मुझे रास्ते में मिल गये। “अरे कैसे नौजवान हो, थके-हारे बैठे हो, उठो चलो।“ मेरी एक आदत है, रास्ते में जो भी मिलता है, उससे बातचीत करता चलता हूं। दोनों से बातचीत होने लगी। राहुल ने कहा, “मुझे तो कोई दिक्कत नहीं है पर के हिम्मत हार चुकी है। हमें ऊपर रुकना भी नहीं है क्योंकि कल सुबह हमारा बस में रिजर्वेशन है। सोच रहे हैं यहीं से वापस हो जायें।“ मैंने अपने गाइड से पूछा, “अभी कितना रास्ता रह गया है।“ गाइड ने बताया कि यदि धीरे-धीरे चलते रहे तो एक से सवा घण्टे में ऊपर पहुंच जायेंगे। (Tracking on Triund mountain : Journey from “Cycle Baba” to “Triund Baba”!)
“अरे उठो के। दो हजार किलोमीटर दूर से आयी हो, अब मंजिल के पास पहुंचकर मैं तुम्हें यूं ही वापस नहीं जाने दूंगा। चलो उठो, इस बुड्ढे आदमी के साथ-साथ चलो।“ मैंने के का हाथ पकड़ा और उसे अपने साथ-साथ ले चला। “हां बेटा बताओ, तुम्हारी अरेंज मैरिज हुई है या लव मैरिज।“ “सर लव मैरिज।“ “तो बताओ तुम फंसी या राहुल ने तुम्हें फंसाया। …अरे-अरे शरमाओ मत, मैं तुम लोगों से अनुभव लेकर कोई बुढ़िया-सुढ़िया फांस लूंगा इसलिए अपनी कहानी बताते चलो। हां, तुम्हें ऊपर को नहीं देखना है, बस अपने पैरों को देखते हुए चलती चलो और कहानी सुनाती रहो।” बस ऐसे ही बातें करते हुए हम लोग डेढ़ बजे ट्रायण्ड पर्वत (Triand mountain) के टॉप पर पहुंच गये। वहां की सुन्दरता देखकर दोनों उसमें खो गये और फोटोग्राफी करने लगे। ढाई बजने पर मैंने उन्हें आवाज दी, “चलो बेटा, अपनी नीचे की यात्रा शुरू करो, आपको नीचे जाने में भी तीन घंटे लग जायेंगे और साढ़े पांच बजे अंधेरा हो जाता है। इस वक्त रास्ते में भी कोई नहीं मिलेगा।”
“अरे सर, आप हमारा इतना ध्यान रख रहे हो, आप तो हमारे लिए “ट्रायण्ड बाबा” बनकर आये हो।“ जाते हुए दोनों पैर भी छू कर गये। दोनों के चेहरे पर खुशी सबकुछ बयान कर रही थी।
ट्रायण्ड पर्वत की यात्रा, “साइकिल बाबा” से “ट्रायण्ड बाबा” बनने की यात्रा! (Tracking on Triand mountain)
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नलगोण्डा की संगीता से वह मुलाकात
हैदराबाद से लगभग 100 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा कस्बा है नलगोण्डा। नलगोण्डा की संगी ता नोएडा की एक फैक्ट्री में नौकरी करती है। कोई बहुत बड़े पैकेज वाली नौकरी नहीं, बस गुजारे लायक तनख्वाह मिलती है। यह कितनी होगी इसका अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि वह जूते भी किसी के मांग कर लायी थी।
घूमने की इच्छा हर इन्सान, हर बच्चे में होती है। सप्ताहान्त था और संगीता ने मैक्लोडगंज के बारे में सुना था। उसने अपने खर्चे से कुछ पैसे बचाये और हिमाचल रोडवेज की साधारण बस से चली आयी मैक्लोडगंज। वहां पहुंच कर उसे ट्रायण्ड पर्वत के बारे में जानकारी हुई और उसने सोचा सुबह जल्दी जाऊंगी, शाम तक लौट आऊंगी और रात की बस पकड़ कर अगले दिन सुबह नोएडा पहुंच जाऊंगी। अपुन के भी चुल है कि रास्ते में जो भी मिलेगा उससे जरूर पूछना है, “कहां से आये हो, यहां घूमने का कैसे मन किया? आदि आदि।”
पंजाब से आये कुछ मुण्डे, मैं और संगीता साथ-साथ चल दिये और संगीता ने अपनी कहानी सुनायी। रास्ते में हमसे व अन्य लोगों से ऊपर रुकने के मजों का वर्णन सुन-सुनकर संगीता का भी ट्रायण्ड पर्वत पर रुकने का मन करने लगा। मैं संगीता का मन भांप गया। ऊपर सिग्न्ल नहीं मिलते हैं, इसलिए उसको ख्याल आया कि रातभर घर वाले फोन करेंगे, चिन्ता करेंगे। मेरे गाइड ने बताया था कि ऊपर एक पॉइंट पर एयरटेल के सिग्नल कभी-कभी मिल जाते हैं। ऊपर पहुंच कर अपने गाइड के मोबाइल फोन से संगीता की उसके घर पर बात करवाई। अब सोमवार की छुट्टी भी लेनी थी तो ऑफिस के एचआर से भी बात करवाई।
ऑफ सीजन में ऊपर टैण्ट 400 से 500 रुपये में आराम से मिल जाता है। अपने गाइड से कहकर संगीता के रुकने का इन्तजाम करवाया। चॉकलेट और मूंगफली मैं नीचे से लेकर ही गया था। हम दोनों ने वही खाया और रातभर कैम्प फायर और दूसरे बच्चों के साथ मजा किया। अब जिन्दगी के किसी मोड़ पर संगीता मिलेगी तो जरूर अपने इस दद्दू को पहचान लेगी।
कैम्प फायर के इर्द-गिर्द कई राज्यों के बच्चे थे। यहां ना तो सीमा विवाद था, ना भाषा विवाद, ना जातिवाद और ना ही रंग का विवाद। सच में, पर्यटन ही भारत को एक करता है और राजनीति अलग-अलग।
अपना बचपन खोजने की यात्रा
“सर आपसे एक बात पूछनी थी, क्या आप एनआरआई हैं?” “नहीं बेटा, मुझे किसी बैंक ने इतना कर्जा ही नहीं दिया कि मैं देश छोड़कर एनआरआई बन जाऊं।” “अरे सर आप तो बहुत फनी हैं। मैं इसलिए पूछ रही थी क्योंकि मैं शिवा कैफे में कई दिन से आ रही हूं पर मैंने कभी भी यहां पर आपकी उम्र के इन्सान को नहीं देखा और आप सुबह-सुबह दस बजे यहां पर!”
शिवा कैफे मैक्लोडगंज से दो किलोमीटर की दूरी पर खड़ी चढ़ाई के बाद शान्त जंगल में है। “अरे बेटा, मैं तो ऊपर ट्रायण्ड पर्वत से लगातार दो घण्टे चल कर यहां पहुंचा हूं।” “अरे सर आप इस उम्र में ट्रायण्ड पर्वत से आ रहे हैं। अमेजिंग! ट्रायण्ड पर्वत पर तो कोई मन्दिर भी नहीं है। यह तो केवल ट्रैकिंग का स्वर्ग है। बुजुर्ग लोग स्वर्ग की इच्छा के कारण धार्मिक स्थलों की तो ट्रैकिंग कर लेते हैं पर यहां नहीं आते।” “अरे बेटा मरने के बाद पता नहीं स्वर्ग जाऊंगा या नर्क पर जिन्दा रहते तो स्वर्ग देख ही लूं।” “सर आप बहुत इण्टरेस्टिंग हैं। मैंने पिज्जा का ऑर्डर कर रखा है, आइये मिलकर पिज्जा खाते हैं, चाय पीते हैं। दो घण्टे की ट्रैकिंग के बाद आप थक गये होंगे और भूख भी लगी होगी।”
श्रेया आईटी कंपनी में काम करती है और उसका वर्क फ्रॉम होम चल रहा है। वह कई दिन से मैक्लोडगंज में है। श्रेया सुबह अपने लैपटॉप के साथ बहुत ही मनमोहक शिवा कैफे में आकर दिनभर अपना काम निपटाती है और शाम को मैक्लोडगंज अपने कमरे में वापस चली जाती है।
ट्रायण्ड पर्वत यात्रा, अनगिनत बच्चों से मिलने की यात्रा, बच्चों में अपना बचपन खोजने की यात्रा।
थोड़े-से प्यार के बदले फ्री में खाना
इक मुसाफिर को दुनिया में क्या चाहिए,
थोड़े-से प्यार के बदले फ्री में खाना चाहिए।
यह दुनिया आज भी प्यार की भूखी है और अपना तो जिन्दगी का एक ही फार्मूला है, “प्यार दो, प्यार लो”। मुझे तिब्बती खाना बहुत पसन्द है और आप मैक्लोडगंज में किसी से भी पूछोगे कि सबसे अच्छा तिब्बती खाना कहां मिलेगा तो सभी कलिम्पोंग रेस्टोरेन्ट के बारे में बतायेंगे। कलिम्पोंग बहुत ही छोटा-सा रेस्टोरेन्ट है। एक छोटी-सी जगह में केवल चार मेज और छोटी-छोटी 16 कुर्सियां हैं। साथ में एक छोटी-सी रसोई। फोटो में जो महिला दिखायी दे रही हैं, वे ही इस रेस्टोरेन्ट की मालकिन और वेटर हैं, बाकी तीनों किचन का स्टाफ हैं। किचन और रेस्टोरेन्ट के बीच एक छोटी-सी सर्विस विंडो है, वहीं से ईमा खाना उठाकर सर्व करती रहती हैं और लोगों से प्यार भरी बातें भी करती हैं। मुझे तिब्बती खाने में थुक्पा बहुत पसन्द है। थुक्पा में बहुत सारा सूप, बहुत सारे नूडल्स, बहुत सारी सब्जियां और बहुत सारा मटन होता है। थुक्पा खाते-खाते मैंने ईमा से बहुत सारी बातें कीं। फिर मैंने उनसे पूरे स्टाफ के साथ एक फोटो लेने की इच्छा जाहिर की। ईमा इतनी खुश हुईं कि क्या बताऊं। रेस्टोरेन्ट ग्राहकों से भरा था, फिर भी उन्होंने अपने पूरे स्टाफ के साथ बाहर आकर मेरे संग फोटो खिंचवाई और अपने मोबाइल फोन में भी मेरे फोटो लिये।
अब आई थुक्पा के पैसे देने की बारी। ईमा ने पैसे लेने से साफ इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, “आपने इतना प्यार दिया, बस यही बहुत है।“ थुक्पा 150 रुपये का था। मैंने जबरदस्ती उनके गले में लटके पर्स में 150 रुपये डालने की कोशिश की। ईमा नहीं मान रही थीं, फिर सौदा आधे-आधे में पटा। ईमा ने मुझे 75 रुपये लौटा दिए। आप भी कभी मैक्लोडगंज जायें तो ईमा के रेस्टोरेन्ट का खाना जरूर खाएं।
“ईमा लव यू एण्ड ऑनर यू।”
लामाओं की संगत में कुछ पल
कुछ लामा पिज्जा हट में पिज्जा के मजे ले रहे थे, मैं भी बातचीत के बहाने उनकी दावत में शामिल हो गया। खूब बातचीत हुई और उनके जबर्दस्त आग्रह पर मैंने भी पिज्जा के दो स्लाइस खाये। फिर एक अन्य रेस्टोरेन्ट में दूसरे लामाओं के साथ कोल्ड ड्रिंक पी। अब आपके दान के पैसों का मजा मैंने भी लिया है तो कुछ सजाएं मुझे भी भुगतनी पड़ेंगी। देखेंगे नर्क में जाने पर कितनी देर गर्म तेल में रखते हैं पर जब तक जमीन पर हैं, तब तक मजे लेते रहेंगे।
नाइटलाइफ छोड़ो, सुबह की लाइफ अपनाओ
दोस्तों, आप तक यात्रा की मजेदार कहानियां पहुंचाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है, बहुत पैदल चलना पड़ता है। मैं मैक्लोडगंज तीन दिन रुका। पहले दिन 16,600 कदम, दूसरे दिन 18,800 कदम, तीसरे दिन 22,200 कदम पैदल चला। नौजवानों से कहना चाहूंगा कि यदि आपको पूरी जिन्दगी मजे लेने हैं तो नाइटलाइफ छोड़ो, सुबह की लाइफ अपनाओ मतलब कि कुछ ना कुछ वर्कआउट जरूर करो। साइकिलिंग, जिम, मॉर्निंग वॉक, कुछ भी करो पर करो जरूर।