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the author's ancestral house in balna village near lohaghat.the author's ancestral house in balna village near lohaghat.

लोहाघाट से लगभग 12 किलोमीटर दूर दिगाली चौड़ होते हुए हम अखिलतरणी मन्दिर पहुंचे। यहां दर्शन-पूजन के पश्चात काली-गांव, किमतोली, काफली और पटोली होते हुए पहुंच गये मेरे गांव बलना। आंगनबाड़ी मानाढूंगा से तलहटी में बसे बलना की ओर रास्ता जाता है।

अमित शर्मा मीत

बात है सन् 1988 की जब मेरे बाबूजी मुझे तीन माह की उम्र में बरेली ले आए थे। तब से मैं यहीं पला-बढ़ा। मैं जहां जन्मा उस जगह, उस घर को मैंने अब तक नहीं देखा था। शायद इसलिए भी कि ना तो कभी उस जगह का घर में ढंग से कभी जिक्र हुआ और ना कभी बाबूजी मुझे लेकर वहां जा पाए। लेकिन, बड़ा होते-होते मुझे यह पता चल गया था कि बरेली मेरी कर्मभूमि मात्र है, जन्मभूमि तो कोई और ही है जिसे देखने की मेरी उत्सुकता, मेरी जिज्ञासा दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी।

बरसों पहले कागज का एक टुकड़ा मेरे हाथ लगा था जिस पर मेरे जन्मस्थान का पूरा पता अंकित था। बाबूजी से भी एक बार हल्का हल्का-सा कुछ पता चला था और तबसे मैं उस जगह को देखने की लालसा मन में पाले उस समय की प्रतीक्षा में था जब मैं अपनी जन्मभूमि को नजर भर देख पाऊं। आखिरकार वह दिन भी आ ही गया जब मेरा पैंतीस बर्षों का लम्बा इन्तजार खत्म होने को था।

इस बार जब मैं लोहाघाट (Lohaghat) पहुंचा तो उस रात मेरे जन्मदिन का केक कटवाते हुए एकाएक प्रोफेसर हेमन्त सिंह चौधरी ने कहा, “चलो बबुआ, इस बार तुम्हारा घर देख कर आते हैं।” मेरी ख़ुशी का तो जैसे ठिकाना ही ना रहा। भाई सुनील सिंह चौधरी ने उस जगह के बारे में मालूमात करना शुरू कर दिया। जांच-पड़ताल से पता चला कि मैं तो इसी लोहाघाट (Lohaghat) की मिट्टी में जन्मा हूं। बस फिर क्या था, अगले ही दिन मैं और हेमन्त चौधरी निकल पड़े मेरे उस अधूरे सपने को साकार करने। सबसे पहले हम चम्पावत (Champawat) से लगभग 13 किलोमीटर दूर लोहाघाट आए। यहां मैंने ज्योति चौधरी को यह खुशख़बरी दी कि मैं उसी के यहां से हूं। इसके बाद  हम लोग अपने गन्तव्य की ओर बढ़ चले।

सार संसार एक मुनस्यार : सारे संसार की खूबसूरती पर भारी मुनस्यारी का सौन्दर्य

लोहाघाट से लगभग 12 किलोमीटर दूर दिगाली चौड़ होते हुए हम अखिलतरणी मन्दिर (Akhiltarini Temple) पहुंचे। यहां दर्शन-पूजन के पश्चात काली-गांव, किमतोली, काफली और पटोली होते हुए पहुंच गये मेरे गांव बलना। आंगनबाड़ी मानाढूंगा से तलहटी में बसे बलना की ओर रास्ता जाता है। यकीन करिए, ऊंच-उंचे पहाड़ों से चारों ओर से घिरा और हरियाली की गोद में बसा मेरा गांव किसी भी स्वर्ग से कम सुन्दर नहीं है। (Tracing ones roots in Balna-of lohaghat)

गर्मी के मौसम में भी सर्द हवा हमारे स्वागत में दोहरी हुई जा रही थी। नीले आसमान पर सफेद बादल मानो किसी नीले कैनवास पर व्हाइट शेड का काम कर रहे थे। चारों ओर हरेभरे सीढ़ीनुमा खेत और उनके इर्दगिर्द पहाड़ी शैली में बने लकड़ी-पत्थर के छोटे-छोटे खूबसूरत मकान दिल को लुभा रहे थे। मैं अपने गांव की पगडंडियों पर आगे बढ़ता हुआ वहां की नायाब ख़ूबसूरती को निहारता जा रहा था। हर कदम के साथ मेरा दिल खुश और चित्त शान्त होता जा रहा था। इस सबके बीच मेरी आंखें अपने घर को तलाश रही थीं। गांव वालों से पूछते-पाछते आखिरकार मैं पहुंच ही गया अपने घर। वह घर जहां मैं जन्मा, जहां मेरा वजूद हुआ, जहां से मुझे बरेली ले जाया गया। हां-हां! वह घर अब मेरी आंखों के सामने था! पत्थरों से डाली गयी छत, हल्के और गहरे नीले रंग से पोता गया और कत्थई रंग के दरवाजों से सजा मेरा घर बेहद सुन्दर लग रहा था। उसका आंगन गोबर से और अन्दर के कमरे मिट्टी से लिपे हुए थे जिनकी सोंधी खुशबू एक अद्भुत एहसास दे रही थी।

अपनी जड़ों की खोज
अपनी जड़ों की खोज

कुछ देर पहले तक उस घर में रहने वाला परिवार मेरे लिए और मैं उन लोगों के लिए अनजान ही था पर जैसे-जैसे बातों का सिलसिला आगे बढ़ा, हम सब जाने-पहचाने हो गये। इसी बीच मटके के पानी और अदरक वाली चाय ने मन को तृप्त कर दिया। इस घर में अब मेरे परिवार को कोई सदस्य या रिश्तेदार नहीं रहता है, जो रहते हैं वे इसके केयरटेकर हैं और मेरे बारे में अच्छे-से जानते हैं।  मुझसे मिल कर मेरी ही तरह वे भी हैरान भी थे और खुश भी। इसके बाद अपने कुल देवता के दर्शन भी किए मैंने।

बरसों का ख्वाब पूरा हो चुका था, साथ ही मेरे दिल को सुकून और मन को शान्ति भी मिल चुकी थी। काफी समय वहां बिताने के बाद कभी ना भूल पाने वाली यादों को लिये हम वहां से लोहाघाट को वापस चल दिए।

नौका विहार इन द झील वाया गोल्ज्यू देव

अपनी मिट्टी को देख लेने की ख़ुशी दिल में लिये मैं दोपहर में लोहाघाट वापस आया तो ज्योति ने कहा, “भइया अब तो सेलिब्रेशन होना चाहिए।”  मैंने कहा, “बिल्कुल होना चाहिए।” बस फिर क्या था, अगले दिन का सारा कार्यक्रम बन गया। अगली सुबह हम लोग सबसे पहले कुमाऊं के पहाड़ों के राजा “गोल्ज्यू देव” के मन्दिर पहुंचे। यह मन्दिर चम्पावत जिले में मंच-तामली मार्ग पर कनलगांव में स्थित है। यह गोल्ज्यू देवता का जन्मस्थान भी है।

कनलगांव में स्थित गोलज्यू देवता मन्दिर।
कनलगांव में स्थित गोलज्यू देवता मन्दिर।

गोल्ज्यू देवता को लोक मान्यता में गौर भैरव (भगवान शिव) का अवतार माना जाता है। ऐतिहासिक रूप से उन्हें राजा झाल राय और उनकी पत्नी कालिंका का बहादुर पुत्र और कत्यूरी राजा का सेनापति बताया गया है। और जैसा कि मैंने बताया, गोल्ज्यू देव पहाड़ों के राजा हैं साथ ही न्याय के देवता भी। वह सबका न्याय करते हैं, साथ ही गलती करने वालों को “चेटक” भी लगाते हैं। उनके मन्दिरों में आज भी लोग अपनी मन्नत की लिखित अर्जी लगाते हैं और मन्नत पूरी होने पर घण्टी चढ़ाते हैं। हम सबने मन्दिर में दर्शन-पूजन करने के बाद वहां के शान्त वातावरण में कुछ समय व्यतीत किया। हम सबके दुलारे यशवर्धन ने वहां टंगी घंटियों के साथ खूब मस्ती की।

कसार देवी : देवी कात्यायनी का स्थान जहां मौजूद हैं खास चुंबकीय शक्तियां

यहां से हम चल दिए एक और शानदार जगह जिसका नाम है कोली ढेक झील (Koli Dhek Lake)। लोहाघाट में स्थित यह झील लगभग दो किलोमीटर लम्बी, 21 मीटर गहरी और 80 मीटर चौड़ी है और यहां आने वाले पर्यटकों को कश्मीर का एहसास करवाती है। देवदार के वृक्षों से घिरी यह कृत्रिम झील इतनी ख़ूबसूरत है कि यहां आने के बाद यहीं का होकर रह जाने का मन करता है। प्रकृति की गोद में बनायी गयी इस झील में हमने घण्टों नौका विहार किया। इसका शान्त जल और चारों ओर के मनोरम दृश्य एक अलग ही तरह का आनन्द दे रहे थे। आप लोगों को जब भी वक्त मिले और मौका लगे तो एक बार कोली ढेक जरूर जायें। एक नया और सुखद अनुभव आपकी प्रतीक्षा में है। (जारी रहेगा)

कोली ढेक झील में नौका विहार।
कोली ढेक झील में नौका विहार।
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