रावल जैसल भाटी ने 1155 में सोनारगढ़ किले (Sonargarh Fort) का निर्माण कार्य शुरू कराया और उनके पुत्र व उत्तराधिकारी शालिवाहन द्वितीय के कार्यकाल में यह तैयार हुआ। पीले पत्थरों से बने इस 250 फीट ऊंचे किले पर जब सूरज की रोशनी पड़ती है तो यह बिल्कुल सोने की तरह चमकता है।
विशाल गुप्त अजमेरा
रानीखेत एक्सप्रेस जैसलमेर (Jaisalmer) रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर दो पर लगी तो रात के 10 बज चुके थे। करीब 23 घण्टे के सफर की थकान शरीर पर हावी थी। हमने सीधे होटल का रुख किया। उतरती सर्दी की उस रात खिड़की के पर्दे हटाए तो सामने की पहाड़ी पर सोने की तरह दमकती एक विशाल संरचना नजर आयी। उस पर पड़ती बिजली की रोशनी और फागुन की चांदनी जिस दृश्य की सर्जना कर रहे थे, उसको निहारना किसी दिव्यलोक के दर्शन करने जैसा था। यह सोनारगढ़ दुर्ग (Sonargarh Fort) था जिसे देखने के लिए हम करीब बारह सौ किलोमीटर का सफर कर यहां तक पहुंचे थे। (Sonargarh: Jaisalmer fort shining like gold)
रावल जैसल भाटी ने 1155 में सोनारगढ़ किले (Sonargarh Fort) का निर्माण कार्य शुरू कराया और उनके पुत्र व उत्तराधिकारी शालिवाहन द्वितीय के कार्यकाल में यह तैयार हुआ। पीले पत्थरों से बने इस 250 फीट ऊंचे किले पर जब सूरज की रोशनी पड़ती है तो यह बिल्कुल सोने की तरह चमकता है। इसलिए इसे सोनार किले के नाम से भी जाना जाता है। बनावट और खूबसूरती की वजह से इसको यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट की सूची में शामिल किया गया है। राजस्थान का यह दूसरा सबसे बड़ा किला त्रिकुटा पहाड़ी पर स्थित है। रेगिस्तान के बीचों-बीच बना होने की वजह से यह धान्वन दुर्ग (मरु दुर्ग) की श्रेणी में आता है। वर्तमान में राजस्थान में दो किले ही ऐसे हैं जिनमें बड़ी संख्या में लोग निवास करते (लिविंग फोर्ट) हैं। इनमें से एक है चित्तौड़गढ़ और दूसरा सोनारगढ़ (Sonargarh)।
कुम्भलगढ़ : भारत की सबसे लम्बी दीवार
सोनारगढ़ (Sonargarh) त्रिकूटाकृति दुर्ग है। दूर से देखने पर यह अंगड़ाई लेते सिंह और लंगर डाले हुए जहाज के समान दिखाई देता है। यह देखने में जितना खूबसूरत है, इसका निर्माण भी उतना ही रोचक है। इसको बनाने में चूने या गारे का प्रयोग बिल्कुल भी नहीं किया गया है। कारीगरों ने बड़े-बड़े पीले पत्थरों को आपस में जोड़कर इसकी दीवारों को खड़ा किया है। किले के चारों ओर 99 गढ़ (बुर्ज) हैं जिनमें से 92 का निर्माण 1633 से 1647 के बीच हुआ था। भारत के किसी भी अन्य किले में इतने बुर्ज नहीं हैं।
वैसे तो इस किले के चार प्रवेश द्वार हैं पर खास आकर्षण है पहला प्रवेशद्वार अक्षय पोल जिसपर की गयी नक्काशी देखते ही बनती है। बाकी तीन द्वार हैं सूरज पोल, भूतापोल (गणेश पोल) और हवा पोल (रंग पोल)। किले के अन्दर कई महल, आवासीय भवन और मन्दिर हैं। दुर्ग के चारों ओर घघरानुमा परकोटा बना हुआ है जिसे “कमरकोट” तथा “पाडा” कहा जाता है।
सोनारगढ़ के देखने योग्य स्थान (Places to visit in Sonargarh)
ऐतिहासिक महल :
महारावल अखेसिंह द्वारा बनवाया गया सर्वोत्तम विलास (शीशमहल) इस किले का सबसे महत्वपूर्ण महल माना जाता है। रंगमहल और मोतीमहल का निर्माण मूलराज द्वितीय द्वारा करवाया गया था। इन महलों में भव्य जालियां और झरोख तथा पुष्पलताओं का सजीव और सुन्दर अलंकरण है। बादल विलास महल का निर्माण सन् 1884 में सिलावटों ने करवाया था। उन्होंने इसे महारावल वैरिशाल सिंह को भेंट कर दिया। इस पांच मंजिला महल की नीचे की चार मंजिलें वर्गाकार जबकि ऊपर की अन्तिम मंजिल गुम्बदाकार है। इस महल पर ब्रिटिश वास्तुकला की छाप दिखाई देती है। यह अपने प्राकृतिक परिवेश के लिए भी जाना जाता है।
विजयी युद्धों की साक्षी तोप : किले के सबसे ऊपरी परकोटे पर राजपूती शान की प्रतीक तोप भी देखने योग्य है। यह कई युद्धों का हिस्सा रही है। युद्ध की रणनीति के हिसाब से जिस स्थान पर यह रखी गयी है, वहां से आप पूरे शहर का नजारा कर सकते हैं।
जैसलू कुआं :
पौराणिक मान्यता के अनुसार द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण अपने सखा अर्जुन के साथ घूमते-घूमते सोनारगढ़ में इसी स्थान पर आये थे। इस दौरान उन्होंने अर्जुन से कहा कि कलियुग में उनके वंशज यहां राज करेंगे। उनकी सुविधा के लिए ही श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से एक कुएं का निर्माण किया था जिसे अब जैसलू कुआं कहा जाता है।
लक्ष्मीनारायण मन्दिर :
जैसलमेर के महारावल श्री लक्ष्मीनारायणजी को जैसलमेर का शासक मानते थे और स्वयं को उनका दीवान। प्रतिहार शैली में बने इस मन्दिर का निर्माण सन् 1437 में महारावल बैरीशाल (वेरिसिंह) के शासनकाल में करवाया गया था। इसमें स्थापित लक्ष्मीनारायण की मूर्ति मेड़ता से लायी गयी थी। एक मान्यता यह भी है कि यह मूर्ति स्वतः ही भूमि से प्रकट हुई थी।
जैन मंदिर भी हैं खास :
इस किले में कई जैन मन्दिर हैं जिनकी वास्तुकला मन्त्रमुग्ध कर देती है। सफेद और पीले पत्थरों से बने इन मन्दिरों में जटिल नक्काशी की गयी है। इनमें आदिनाथ जैन मन्दिर सबसे प्राचीन है जिसका निर्माण 12वीं शताब्दी में किया गया था। अन्य जैन मन्दिर 15वीं शताब्दी के आसपास के हैं। पार्श्वनाथ, संभवनाथ और ऋषभदेव मन्दिर अपने शिल्प सौन्दर्य के कारण आबू के दिलवाड़ा जैन मन्दिरों की तरह प्रतीत होते हैं।
जिनभद्र सूरी ग्रन्थ भण्डार : यहां पर प्राचीन जैन पाण्डुलिपियों (ताड़ के पत्तों पर लिखी गयी) और हस्तलिखित ग्रन्थों का एक दुर्लभ और सबसे बड़ा भण्डार है। इनको जिनभद्र सूरी ने लिपिबद्ध और संगृहीत किया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम जिनभद्र सूरी ग्रन्थ भण्डार पड़ा।
संग्रहालय : किले के अन्दर एक संग्रहालय (विरासत केन्द्र) बनाया गया है जहां रावल शासकों के दौर की कई चीजों के अवशेष और कलाकृतियों का एक बड़ा संग्रह है।
कब जायें जैसलमेर (When to go to Jaisalmer)
अप्रैल से जून के बीच जैसलमेर में बेचैन कर देने वाली गर्मी पड़ती है तथा पथरीले और रेतीले रास्तों पर चलना मुश्किल हो जाता है। मानसून काल में पथरीले रास्तों पर कई बार बहुत अधिक फिसलन हो जाती है। इसलिए अक्टूबर से मार्च तक का समय जैसलमेर घूमने के लिए एकदम सही माना है।
ऐसे पहुंचें जैसलमेर (How to reach Jaisalmer)
वायु मार्ग : जैसलमेर में वायुसेना स्टेशन परिसर में ही नागरिक विमानों के लिए एक हवाई पट्टी है। यहां से केवल जोधपुर के लिए उड़ान है जो अक्सर स्थगित होती रहती है। जोधपुर एयरपोर्ट जैसलमेर से करीब 268 किलोमीटर पड़ता है जहां के लिए दिल्ली, श्रीनगर, मुम्बई, तिरुवनन्तपुरम, बंगलुरु, कोयम्बटूर, कोलकाता, मुम्बई, पुणे आदि से उडानें हैं।
रेल मार्ग : दिल्ली और जयपुर से जैसलमेर के लिए कई सीधी ट्रेन हैं। जोधपुर, काठगोदाम, मुरादाबाद, गुरुग्राम, अलवर, मुम्बई आदि से भी यहां के लिए ट्रेन ले सकते हैं।
सड़क मार्ग : जोधपुर, उदयपुर और जयपुर से जैसलमेर क्रमशः 264, 496 और 597 किलोमीटर पड़ता है। राजस्थान और गुजरात के विभिन्न शहरों के साथ इसका अच्छा सड़क सम्पर्क है। आप सरकारी अथवा निजी बस, टैक्सी और कैब से यहां पहुंच सकते हैं।
विरूपाक्ष मन्दिर : भारतीय वास्तुकला की समृद्ध विरासत का गवाह
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