रास्ते में तेज हवा के बीच स्कूटी के साथ आगे बढ़ना काफी मुश्किल हो रहा था पर अन्दर की जिद रास्ता आसान किए हुए थी और इसी तरह का सफर करते हुए मैं कुछ ही घण्टों में पहुंच गया चम्पावत, कॉलेज समय के अपने सबसे घनिष्ठ साथी प्रोफेसर हेमन्त सिंह चौधरी के पास।
अमित शर्मा “मीत”
बात है आज से कुछ महीने पहले की जब एक सुबह शहर से उकता चुके मन और नौकरी से थक चुके तन को लेकर मैं पहाड़ों की ओर निकल पड़ा। इस बार की यात्रा कई मायनों में अनूठी होने के साथ-साथ मेरी जिन्दगी की किताब के पहले सफ़हे (पन्ने) पर ले जाने वाली थी। (Nature’s monism: A journey that gives peace to the city-weary mind)
वह सुबह बेहद आंधियों भरी थी जिसके चलते घण्टा भर अपने घर पर जैसे-तैसे इन्तजार करने के बाद बेसब्र-सा मैं उसी मौसम में अपनी स्कूटी के साथ निकल पड़ा पहाड़ों की मुहब्बत में अपने जुनून को लिये…। रास्ते में तेज हवा के बीच स्कूटी के साथ आगे बढ़ना काफी मुश्किल हो रहा था पर अन्दर की जिद रास्ता आसान किए हुए थी और इसी तरह का सफर करते हुए मैं कुछ ही घण्टों में पहुंच गया चम्पावत (Champawat), कॉलेज समय के अपने सबसे घनिष्ठ साथी प्रोफेसर हेमन्त सिंह चौधरी के पास।
जलपान के बीच कुछ देर की बातचीत के बाद हम दोनों निकल पड़े देवदार, चीड़, बांज और बुरांश के सघन जंगल में अद्भु्त नैसर्गिक सौन्दर्य के मध्य बसे एक खूबसूरत और ऐतिहासिक स्थान की ओर जिसका नाम है “अद्वैत आश्रम” । यह समुद्र तल से लगभग 6400 फुट की ऊंचाई पर चम्पावत जिले के मायावती नामक स्थान पर है, इस कारण इसे मायावती अद्वैत आश्रम (Mayawati Advaita Ashram) और मयावतीव आश्रम भी कहते हैं। यह जगह इतनी सुन्दर है जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। प्रकृति ने अपने सौन्दर्य के समस्त वितान मानो पूरे औदार्य के साथ समान भाव से सबके लिए खोल दिए हैं।
स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से उनके शिष्य स्वामी स्वरूपानन्द, कैप्टन जेएच सेवियर और उनकी पत्नी सीई सेवियर ने 19 मार्च 1899 को इस आश्रम की स्थापना की थी। सन् 1901 में जेएच सेवियर की मृत्यु की जानकारी मिलने पर स्वामी विवेकानन्द यहां आए थे। वे तीन से 18 जनवरी तक इस आश्रम में रहे। इसी वर्ष यहां एक पुस्तकालय की स्थापना की गयी जिसमें अध्यात्म एवं दर्शन सहित कई विषयों पर पुस्तकों का संकलन है। स्वामी विवेकानन्द की इच्छानुसार इस आश्रम में कोई भी मन्दिर या मूर्ति नहीं है। सन् 1903 में यहां एक धर्मार्थ चिकित्सालय की स्थापना की गयी जिसमें आज भी देश-विदेश से नियमित अन्तराल पर विजिट करने वाले विशेषज्ञ डॉक्टरों द्वारा गरीबों की निशुल्क चिकित्सा का क्रम बना हुआ है। यह आश्रम रामकृष्ण मिशन की पुस्तकों का प्रमुख प्रकाशन विभाग भी है। अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका प्रबुद्ध भारत का सम्पादकीय कार्यालय यहीं पर है।
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आश्रम में एक संग्रहालय भी है। अथितिशाला में बाहर से आने वाले साधकों के ठहरने की उचित व्यवस्था है। यहां एक ध्यान साधना कक्ष भी है जिसमें कुछ समय चिन्तन-मनन करने पर मन में असीम शान्ति का अनुभूति होने लगती है और आध्यात्मिक प्रभाव गहराने लगता है।
इतने मनमोहक प्राकृतिक सौन्दर्य और शान्त वातावरण के बीच कब दोपहर बीत गयी, पता ही नहीं चला। चूंकि प्रो. चौधरी की ऑनलाइन क्लासेज का वक्त हो चला था, इसलिए हम लोग वहां के दिलकश नजारों को आंखों में भर कर लौट चले चम्पावत की ओर।
मानेश्वर से घटकू तक
घर वापस आने के बाद भी अद्वैत आश्रम का शान्त और सुकून भरा वातावरण मन में कुलबुलाहट कर रहा था। खाना खाने के बाद प्रो. चौधरी ऑनलाइन क्लासेज में व्यस्त हो गये पर मुझे कहां चैन मिलने वाला था। मैं बेचैन आत्मा की तरह भटकते हुए आसपास की पहाड़ियों को निहार रहा था कि दूसरे चौधरी यानी सुनील सिंह मास्साब आ गये। मेरी बेचैनी को भांपकर वे मुझे मानेश्वर मन्दिर ले गये जो एक शक्तिपीठ भी है।
यह मन्दिर चम्पावत शहर से लगभग सात किलोमीटर दूर चम्पावत- पिथौरागढ़ मोटर मार्ग से एक किमी अन्दर की ओर है। यह चम्पावत के सबसे पुराने मन्दिरों में से एक है जिसका निर्माण आठवीं शताब्दी में चन्द वंश के राजा निर्भय चन्द ने करवाया था। राजा ने अखण्ड धूना स्थल और “गुप्त नौले” का जल इकट्ठा करने के लिए मन्दिर के पास एक पक्की बावड़ी का भी निर्माण करवाया।
इस नौले के बारे में भी एक रोचक कथा है। बताया जाता है कि जब पाण्डव पुत्र माता कुन्ती के साथ अज्ञातवास के दौरान इस क्षेत्र में आए तो आमलकी एकादशी पर राजा पाण्डु की श्राद्ध तिथि थी। माता कुन्ती का प्रण था कि वह कैलास-मानसरोवर के ही जल से ही श्रद्ध करेंगी। कुन्ती ने यह बात युधिष्ठिर को बताई तो उन्होंने अर्जुन से माता का प्रण पूरा करने को कहा। अर्जुन ने अपने गाण्डीव धनुष से बाण मारकर यहां जल-धारा उत्पन्न कर दी। इसी जल से पाण्डु का श्राद्ध करने के बाद पाण्डवों ने भगवान शिव का आभार व्यक्त करने के लिए इस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की। जिस स्थान पर बाण मारा गया था, उसको ही वर्तमान में गुप्त नौले के नाम से जाना जाता है। इस जल से स्नान करने पर पुण्य लाभ के साथ ही कई रोग दूर होने की बात कही जाती है। आमलिका एकादशी को यहां मानेश्वर शक्तिपीठ की वर्षगांठ के रूप में मनाया जाता है। श्रद्धालु वेदान्ती भजनों और भक्तिपूर्ण होली गीतों का गायन करते हैं। इस अवसर पर यहां मेले का भी आयोजन होता है।
हमें बताया गया कि पहले मानेश्वर धाम कैलास-मानसरोवर यात्रा का मुख्य पड़ाव होता था। सन् 1962 से पूर्व जब यह यात्रा पैदल होती थी, टनकपुर में शारदा नदी में स्नान के बाद यात्रियों का पहला पड़ाव चम्पावत ही हुआ करता था। यहां बालेश्वर शिव धाम में पूजा करने के बाद वे मानेश्वर धाम पहुंचते थे और पूजा-अर्चना के बाद यहीं पर रात्रि विश्राम करते थे।
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बहरहाल, उस शाम प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच बसे मानेश्वर धाम में दर्शन-पूजन का अनुभव अत्यन्त दिव्य और अद्भुत रहा। वहां कुछ समय बिताने से ही मेरा चित्त एकदम शान्त और मन आनन्दित हो गया। शाम अब अपने आख़िरी मुहाने पर थी, हम लोग घटकू देवता के मन्दिर की ओर चल दिए। यह मन्दिर भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच को समर्पित है। यह चम्पावत-तामली मार्ग पर देवदार के सघन वन में चम्पावत शहर से केवल दो किमी दूर है। घटोत्कच ने महाभारत के युद्ध में अहम भूमिका निभाई थी। उनके पास अपने आकार को छोटा-बड़ा करने की दिव्य शक्ति थी जिसके बल पर उन्होंने कौरवों के हज़ारों सैनिकों का अकेले ही वध कर दिया। यह देखकर दुर्योधन ने कर्ण से उसे मारने के लिए अमोघ शक्ति का प्रयोग करने को कहा। घटोत्कच का शीश कटकर जिस स्थान पर गिरा था, उसी जगह आज घटोत्कच मन्दिर है।
मन्दिरों में दर्शन-पूजन करते-करते शाम ढल चुकी थी सो हम लोग घर वापस आ गये। प्रो. चौधरी का घर चम्पावत की सबसे ऊंची पहाड़ी पर है जहां से पूरा नगर नजर आता है। रात में हम लोग बालकनी में बैठे तो वहां से बिजली के रोशनी में जगमगाते चम्पावत (Champawat) का इतना गजब नजारा दिख रहा था कि मैंने उसे तुरन्त अपने कैमरे में कैद कर लिया।