Kalinjar Fort कभी जयशक्ति चन्देल (जेजाकभुक्ति साम्राज्य) के अधीन था। बाद में यह दसवीं शताब्दी तक चन्देल राजपूतों और उसके बाद रीवा के सोलंकियों के अधीन रहा। दिल्ली सल्तनत के संस्थापक क़ुतुबुद्दीन ऐबक, तुर्क आक्रान्ता महमूद गजनवी और मराठाओँ ने इस किले को जीतने की कोशिश की लेकिन सबको खाली हाथ ही वापस लौटना पड़ा।
आर. पी. सिंह
विश्व प्रसिद्ध खजुराहो से बमुश्किल सौ किलोमीटर दूर स्थित कालिन्जर किले (Kalinjar Fort) के बारे में सुना तो काफी था पर कभी जाना नहीं हो पाया था। कुछ दिनों पहले चन्देल योद्धाओं की धरती छतरपुर घूमने का कार्यक्रम बना तो दिल्ली से खजुराहो के लिए उड़ान भरी। दो दिन खजुराहो के विश्व प्रसिद्ध मन्दिरों के देखने के बाद महान योद्धा छत्रसाल के बसाये छतरपुर के ऐतिहासिक और प्राकृतिक स्थलों को देखने का आनन्द लिया। इतना घूमने-फिरने के बाद भी हमारे पास दो दिन का समय था। उचित अवसर जानकर हम वाया खजुराहो-पन्ना कालिन्जर के लिए रवाना हो गये जो छतरपुर शहर से करीब 129 किलोमीटर पड़ता है।
कालिन्जर(Kalinjar) अपने विशाल और अब काफी हद तक क्षतिग्रस्त हो चुके दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है। समुद्र तल से 367 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह दुर्ग जिस पर्वत पर निर्मित है वह दक्षिण पूर्वी विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी का भाग है। कुल 21,336 वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में विस्तृत इस दुर्ग की अधिकतम ऊंचाई 33 मीटर है और यह कालिन्जर से काफी पहले से नजर आने लगता है। इसको अपने समय में भारत के सबसे विशाल और अपराजेय दुर्गों में गिना जाता रहा है। छठी शताब्दी में बना यह किला अपने अन्दर शानदार इतिहास के साथ-साथ कई खौफनाक रहस्यों को भी समाये हुए है।
इसे प्रारम्भिक मध्ययुगीन काल का सर्वोत्तम दुर्ग माना जाता है। एक समय ऐसा भी था जब इसे जीतना अपनी शौर्य की पताका लहराने जैसा माना जाता था। इसके चलते इस पर कई बार हमले हुए लेकिन ज्यादातर समय आक्रान्ताओं को मुंह की खानी पड़ी। दरअसल, इसकी अभेद्य संरचना और इस तक पहुंचने के खतरनाक पहाड़ी मार्ग की वजह से दुश्मनों के लिए हाथियों और तोपों से हमला करके इसे ध्वस्त करना नामुमकिन-सा था।
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बुन्देलखण्ड इलाके को पानी की कमी के लिए भी जाना जाता है लेकिन यह जिस दुर्ग जिस पहाड़ी पर बना है वहां से हमेशा पानी रिसता रहता है। कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक फैले बुन्देलखण्ड क्षेत्र में कई वर्ष तक सूखा पड़ने के बावजूद कालिन्जर दुर्ग (Kalinjar Fort) की पहाड़ी से पानी का रिसना बन्द नहीं हुआ।
कालिन्जर दुर्ग का इतिहास (History of Kalinjar Fort)
यह दुर्ग कभी जयशक्ति चन्देल (जेजाकभुक्ति साम्राज्य) के अधीन था। बाद में यह दसवीं शताब्दी तक चन्देल राजपूतों और उसके बाद रीवा के सोलंकियों के अधीन रहा। दिल्ली सल्तनत के संस्थापक क़ुतुबुद्दीन ऐबक, तुर्क आक्रान्ता महमूद गजनवी और मराठाओँ ने इस किले को जीतने की कोशिश की लेकिन सबको खाली हाथ ही वापस लौटना पड़ा। कालिन्जर विजय अभियान में ही तोप के गोला लगने से शेरशाह सूरी की मृत्यु हुई थी। मुगल बादशाह हुमायूं ने इस दुर्ग पर कब्जा करने के लिए हमला किया पर नाकामयब रहा। हालांकि उसके पुत्र बादशाह अकबर ने इस पर अधिकार कर लिया। राजा छत्रसाल बुन्देला ने अकबर के प्रपौत्र औरंगजेब की सेना के पराजित कर इस दुर्ग को आजाद करा लिया। एक दौर ऐसा भी आया जब छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव की मदद से पूरे बुन्देलखण्ड से मुगलों को बेदखल कर दिया। 1812 ईसवी में यह दुर्ग अंग्रेजों के अधीन हो गया। भारत के स्वतन्त्र होने के पश्चात इसकी पहचान एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर के रूप में की गयी। वर्तमान में यह भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकार एवं अनुरक्षण में है।
चीन के शोधार्थी य़ात्री ह्वेन त्सांग ने सातवीं शताब्दी में लिखे अपने दुर्लभ संस्मरण में कालिन्जर दुर्ग (Kalinjar Fort) के बारे में कई जानकारियां दर्ज की हैं। यह दुर्ग कितना पुराना है इसके साक्ष्य गुप्त काल से मिलते हैं। पुरातत्व विशेषज्ञों को यहां कुछ ऐसे शिलालेख मिले हैं जो बताते हैं कि यह किला गुप्त काल में भी मौजूद था।
कालिन्जर किले की वास्तुकला (Architecture of Kalinjar Fort)
जानकारों के अनुसार इस दुर्ग (Kalinjar Fort) की संरचना अग्नि पुराण, बृहत्संहिता व अन्य वास्तु ग्रन्थों के अनुसार है। हालांकि यहां गुप्त स्थापत्य शैली, चन्देल शैली, प्रतिहार शैली और पंचायतन नागर शैली के नमूने भी दिखते हैं। दुर्ग के बीचों-बीच अजय पलका नामक एक झील है जिसके आसपास कई प्राचीन मन्दिर हैं। यहां ऐसे तीन मन्दिर हैं जिन्हें अंकगणितीय विधि से बनाया गया है। यहां के स्तम्भों एवं दीवारों पर कई कलाकृतियां बनी हुई हैं। दुर्ग में प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं और ये सभी एक दूसरे से भिन्न शैलियों में अलंकृत हैं। प्रथम और मुख्य द्वार सिंह द्वार है। दूसरा द्वार गणेश द्वार कहलाता है। तीसरे द्वार को चण्डी द्वार जबकि चौथे द्वार को स्वर्गारोहण द्वार या बुद्धगढ़ द्वार कहते हैं। इसके पास एक जलाशय है जो भैरव कुण्ड या गन्धी कुण्ड कहलाता है। पांचवां द्वार अत्यन्त कलात्मक है जिसका नाम हनुमान द्वार है। यहां कलात्मक शिल्पकारी, मूर्तियां और चन्देल शासकों से सम्बन्धित शिलालेख हैं। छठे दरवाजे को लाल द्वार कहते हैं जिसके पश्चिम में हम्मीर कुण्ड है। सातवां व अंतिम दरवाजा नेमि द्वार है जिसे महादेव द्वार भी कहते हैं। इन सात द्वारों के अलावा इस दुर्ग में मुगल बादशाह आलमगीर औरंगजेब द्वारा बनवाया गया आलमगीर दरवाजा, चौबुरजी दरवाजा, बुद्ध भद्र दरवाजा और बारा दरवाजा नामक अन्य द्वार भी हैं।
किले में दो भव्य महल हैं- राजा महल और रानी महल। पाण्डु कुण्ड में चट्टानों से निरन्तर पानी टपकता रहता है। माना जाता है कि इसके नीचे से पातालगंगा बहती है। उसी के जल से यह कुण्ड भरता है। इसके अलावा पातालगंगा जलाशय, कोटि तीर्थ, मृगधारा, सात हिरणों की मूर्तियां, भैरव, मण्डूक भैरवी, चतुर्भुजी रुद्राणी, दुर्गा, पार्वती और महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमाएं तथा त्रिमूर्ति, शिव, कामदेव, शचि (इन्द्राणी) की मूर्तियां देखने योग्य हैं। इस दुर्ग में मिलने वाली मूर्तियां विभिन्न धर्मों, पंथों और जातियों से प्रभावित हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि चन्देल संस्कृति में किसी एक क्षेत्र विशेष का ही योगदान नहीं है। चन्देल वंश से पूर्ववर्ती बरगुजर शासक शैव मत के अवलम्बी थे। इसीलिए अधिकतर पाषाण शिल्प और मूर्तियां शिव, पार्वती और नन्दी की ही हैं।
कालिन्जर किले की रहस्यमयम गुफाएं (Mysterious Caves of Kalinjar Fort)
कालिन्जर दुर्ग (Kalinjar Fort) में ऐसी कई गुफाएं हैं जो शुरू तो होती हैं लेकिन कहां खत्म होती हैं, इसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता। इन गुफाओं में कहीं पानी टपकता रहता है तो कहीं पातालगंगा के होने की बातें कही जाती हैं। माना जाता है कि इन रहस्यमयी गुफाओं का उपयोग आपातकाल में किले और इसमें रहने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए किया जाता था। गुफाओं में जगह-जगह मकड़ी के जाले और बिल्लियों की घूरती निगाहें रोंगटे खड़े कर देती हैं। इन गुफाओं में कई जगह चमगादड़ों का भी डेरा है।
रात के अंधेरे में घुंघरुओं का आवाज (sound of bells in the dark of night)
किले के सात मुख्य दरवाजों में से एक सिर्फ रात में खुलता है जहां से निकला एक रास्ता रानीमहल तक जाता है। रात के अंधेरे में घुघरुओं का आवाज इस महल के सन्नाटे को तोड़ती है। दरअसल, इस किले के वैभव के दिनों में यहां हर रात महफिलें सजा करती थीं। हमें बताया गया कि आज भी शाम ढलते ही एक नर्तकी के कदम यहां उसी तरह थिरकने लगते हैं। हालांकि अब यह आवाज दिल नहीं बहलाती बल्कि भय और सिहरन पैदा करती है। इस नर्तकी का नाम पद्मावती बताया जाता है। कुछ इतिहासकार भी इस सच को मानते हैं। शोध के दौरान जब उन्हें देर रात तक इस महल में रुकना पड़ा तो अचानक घुंघरुओं की आवाज सुनाई देने लगी।
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कालिन्जर का पौराणिक महत्व (Mythological importance of Kalinjar)
इतिहास, रोमांच और चमत्कार से हटकर कालिन्जर का पौराणिक महत्व भी है। यह क्षेत्र सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिन्जर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ऋगवेद, विष्णु पुराण, वायु पुराण, गरुड़ पुराण, वामन पुराण, कूर्म पुराण, वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि में कालिन्जर क्षेत्र का उल्लेख है। वामन पुराण में कालिन्जर को नीलकण्ठ का निवास स्थान माना गया है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार सागर मन्थन के उपरान्त भगवान शिव ने सागर से उत्पन्न हलाहल विष का पान कर उसे अपने कण्ठ में ही रोक लिया था जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया और वे नीलकण्ठ कहलाए। इस विष का पान करने के बाद भगवान शिव को जब दाह होने लगी तो उन्होंने इसी स्थान पर तपस्या कर काल की गति को मात दी। तभी से इस स्थान का नाम कालिन्जर पड़ा जिसका अर्थ है “काल को जर्जर करने वाला”। इस विशेष स्थान पर ही नीलकंठ मन्दिर है जिसके ऊपर ही पहाड़ के अन्दर एक जलस्रोत और कुण्ड है जिसे स्वर्गा कहा जाता है। इसका जल कभी नहीं सूखता है। यह मन्दिर इस किले का सबसे पूजनीय देवस्थल है। किले में इसके अलावा भी कई मन्दिर जिनमें कुछ तीसरी से पांचवीं सदी गुप्तकाल के हैं।
दुर्ग में सीता सेज नामक एक छोटी-सी गुफा है जहां पत्थर का एक पलंग और तकिया रखा हुआ है। लोकमत इसे रामायण की सीता की विश्रामस्थली मानता है। यहीं पर एक कुण्ड है जो सीताकुण्ड कहलाता है।
ऐसे पहुंचें कालिन्जर (How to reach Kalinjar)
वायु मार्ग : खजुराहो एयरपोर्ट कालिन्जर दुर्ग (Kalinjar Fort) का निकटतम हवाईअड्डा है जो यहां से करीब 100 किलोमीटर पड़ता है।
रेल मार्ग : कालिन्जर किले का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन बांदा है जो किले से 60 किमी की दूरी पर है। एयरपोर्ट से टैक्सी लेकर किले तक पहुंच सकते हैं।
रेल मार्ग : बांदा जंक्शन रेलवे स्टेशन से इस किले तक पहुंचने के लिए करीब 62 किलोमीटर का सफर करना होता है। नयी दिल्ली, मुम्बई, हावड़ा, लखनऊ, वाराणसी, प्रयागराज, मथुरा, ग्वालियर, जबलपुर, हरिद्वार आदि से यहां के लिए ट्रेन सेवा है।
सड़क मार्ग : कानपुर, प्रयागराज, झांसी, मिर्जापुर आदि से बांदा के लिए सरकारी और निजी बस मिलती हैं। बांदा से कालिन्जर के लिए बस अथवा टैक्सी कर सकते हैं।
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