सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अधिकारियों को बाल विवाह रोकने और नाबालिगों की सुरक्षा के साथ ही दोषियों को कड़ी सजा दिलाने पर फोकस करना चाहिए।
नई दिल्ली। (Supreme Court Decision on Child Marriage) बाल विवाह निषेध कानून, 2006 (Child Marriage Prohibition Act, 2006) का विरोध और इस मामले में पर्सनल लॉ की वकालत करने वाले लोगों को सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को बड़ा झटका दिया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा, “बाल विवाह के खिलाफ बने कानून को किसी भी व्यक्तिगत कानून (Personal law) के तहत परंपराओं से बाधित नहीं किया जा सकता।” शीर्ष न्यायालय ने कहा, “बाल विवाह, जीवन साथी अपनी इच्छा से चुनने के अधिकार का भी उल्लंघन करता है।” मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की तीन सदस्यीय पीठ ने बाल विवाह रोकने के लिए बने कानून को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए कुछ दिशा निर्देश भी जारी किए। साथ ही पीठ ने यह भी माना कि बाल विवाह निषेध कानून में कुछ खामियां भी हैं।
भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा कि बाल विवाह की रोकथाम के लिए बने बाल विवाह निषेध कानून को पर्सनल कानूनों के जरिए बाधित या रोका नहीं किया जा सकता। अधिकारियों को बाल विवाह रोकने और नाबालिगों की सुरक्षा के साथ ही दोषियों को कड़ी सजा दिलाने पर फोकस करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि ऐसी कोशिश की जानी चाहिए कि अलग-अलग समुदायों के लिए कानून में लचीलापन मौजूद रहे। कोई कानून तभी सफल हो सकता है जब उसमें विभिन्न पक्षों का समन्वय और सहयोग होगा। इसके लिए जांच अधिकारियों को प्रशिक्षित करने और नए तौर-तरीके सिखाने की जरूरत है। हमारा मानना है कि इसमें समाज आधारित सोच का समावेश किया जाना चाहिए।
बाल विवाह निषेध कानून, 2006 देश में बाल विवाह रोकने के लिए लागू किया गया था। हालांकि वर्ष1 929 यानी कि स्वतंत्रता से पहले से देश में यह कानून मौजूद है लेकन 2006 में तत्कालीन सरकार ने इस कानून में बदलाव कर बाल विवाह निषेध कानून, 2006 लागू किया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बाल विवाह रोकने के लिए समाज में जागरूकता फैलाने की जरूरत है, सिर्फ सजा का प्रावधान करने से कुछ नहीं होगा। सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा, “बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत बाल विवाह रोकने का प्रयास किया जाता है लेकिन यह इस सामाजिक समस्या को हल नहीं कर पाता जिससे परिवार द्वारा बच्चों की शादी नाबालिग उम्र में तय कर दी जाती है। इससे उनके जीवन साथी चुनने के अधिकार का उल्लंघन होता है क्योंकि इतनी कम उम्र में उन्हें समझ और अधिकारों का बोध नहीं होता है।”
शीर्ष अदालत ने सोसाइटी फॉर एनलाइनमेंट एंड वॉलेंटरी एक्शन की याचिका पर यह फैसला सुनाया। एनजीओ का आरोप था कि बाल विवाह निषेध कानून को शब्दशः लागू नहीं किया जा रहा है। एनजीओ ने साल 2017 में याचिका दायर की थी जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को यह फैसला सुनाया है।