प्रकृति का संरक्षण या इस ग्रह का संरक्षण प्रकृति के हित में ही नहीं है बल्कि हमारे हित के लिए भी जरूरी है। इसके विपरीत हम दिन-प्रतिदिन प्रकृति को नियंत्रण में करते जा रहे हैं लेकिन इस अहंकार में हम में से अधिकतर लोग यह भूल गए हैं कि हम भी इसी प्रकृति का हिस्सा हैं।
पंकज गंगवार
मनुष्य जब प्राकृतिक अवस्था में रहता था तब उसको जहां जंगल, हवा, पानी, नदी, आग, सूरज, चांद जैसी प्राकृतिक शक्तियों से भय लगता था, वहीं वह उनके प्रति आभार भी व्यक्त करता था। इससे ही धर्म का उदय हुआ। दुनिया के जितने भी प्राचीन धर्म हैं, वे आपको नदी पर्वत, आग आदि को पूजते हुए मिलेंगे, चाहे वह भारत का सनातन धर्म हो, यूरोप और अफ्रीका के पैगन हों अथवा ग्रीको-रोमन परम्परा। लेकिन, जब मनुष्य में प्राकृतिक घटनाओं के पीछे के कारणों को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई तो वहां से विज्ञान का उदय हुआ।
विज्ञान जब विकसित हुआ तो मनुष्य के हाथ में शक्ति आ गई और उसने प्रकृति पर नियंत्रण करना शुरू कर दिया। यह सुनने में बहुत अच्छा लगता है कि अब हमें प्राकृतिक शक्तियों से अपने पूर्वजों की भांति उतना डरने की जरूरत नहीं है। हम दिन-प्रतिदिन प्रकृति को नियंत्रण में करते जा रहे हैं लेकिन इस अहंकार में हम में से अधिकतर लोग यह भूल गए हैं कि हम भी इसी प्रकृति का हिस्सा हैं। अगर यह प्रकृति ही नहीं रहेगी तो हमारा अस्तित्व भी नहीं बचेगा। पूरे ब्रह्मांड में अगर देखा जाए तो पृथ्वी एक कण के बराबर है यानी अगर हम अपने ग्रह यानी पृथ्वी को बर्बाद कर देंगे तो इस ब्रह्माण्ड (universe) पर रत्तीभर भी प्रभाव नहीं पड़ेगा लेकिन हम मानव हमेशा के लिए नष्ट हो जाएंगे। इसलिए प्रकृति का संरक्षण या इस ग्रह का संरक्षण प्रकृति के हित में ही नहीं है बल्कि हमारे हित के लिए भी जरूरी है।
प्रकृति के साथ हमारे संबंधों में हम दो तरह की अतियां करते हैं। एक, वे लोग हैं जो विकास के नाम पर प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करते हैं और बदले में उसकी क्षतिपूर्ति भी नहीं करते। वे इस बात को बिल्कुल ही भुला देते हैं कि हम इस प्रकृति का ही हिस्सा हैं। दूसरे वे लोग हैं जो यह कहते हैं की प्रकृति के संरक्षण के लिए हमें विकास नहीं करना चाहिए बल्कि हमें प्रकृति को अछूता छोड़ देना चाहिए।
केदारनाथ, जोशीमठ और वायनाड जैसी आपदाएं आने के साथ ही इन दोनों तरह की अतियों पर बहस तेज हो जाती है किंतु मेरा मानना है कि हमें दोनों ही तरह अतिओं से बचना चाहिए। हमें विकास भी चाहिए। जिस तरह की जीवन शैली हम अपनाते जा रहे हैं या अपना चुके हैं, उससे पीछे हट कर गुफाओं में तो नहीं लौट सकते। हमें बिजली, पानी, सड़क, रेल, हवाई जहाज ,बांध आदि चाहिए ही होंगे और इनका विकास करने पर कहीं ना कहीं प्रकृति को नुकसान पहुंचेगा ही।
अगर हमारे किसी कार्य से प्रकृति को कोई नुकसान हो रहा है तो हमें तुरंत उसकी क्षतिपूर्ति भी करनी चाहिए। हमें विकास की ओर बढ़ना ही होगा लेकिन यह विकास प्रकृति के साथ शत्रुतापूर्ण न होकर मैत्रीपूर्ण होना चाहिए। इसलिए ही आज पूरी दुनिया ग्रीन तकनीक की ओर बढ़ रहा है। ग्रीन तकनीक यानी की ऐसी तकनीक जो इस धरती को कम से कम नुकसान पहुंचाये। हमारी कंपनी न्यूट्रीवर्ल्ड के उत्पाद डिजाइन करते समय हमेशा यह ध्यान रखा जाता है कि हमारे उत्पाद मनुष्यों, पशु-पक्षियों और धरती के प्रति जितना संभव हो सकता है उतने मैत्रीपूर्ण हों। इन्हें किसी भी तरह से नुकसान न पहुंचाएं।
दूसरों का पता नहीं लेकिन मुझे तो शांति प्रकृति के बीच में ही मिलती है। जब भी दिमाग पर काम का बोझ ज्यादा बढ़ जाता है तब मैं शांति या रिलैक्सेशन के लिए प्रकृति की शरण लेता हूं।
(लेखक पोषण विज्ञान के गहन अध्येता होने के साथ ही न्यूट्रीकेयर बायो साइंस प्राइवेट लिमिटेड (न्यूट्रीवर्ल्ड) के चेयरमैन भी हैं)