Donation : मार्कण्डेय ऋषि ने आगे कहा, “पाण्डु पुत्र! अब मैं तुम्हें यह बताता हूं कि कैसे व्यक्ति को दान देना चाहिए। जो सम्पूर्ण शास्त्रों का विद्वान हो और अपने को और दाता को तारने की शक्ति रखता हो, ऐसे बाह्मण को दान देना चाहिए। अतिथियों को भोजन कराने का भी अत्यन्त महत्व है। उन्हें भोजन कराने से अग्निदेव जितना संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें हविष्य का हवन करने और फूल एवं चंदन चढ़ाने से भी नहीं होता है।”
रेनू जे त्रिपाठी
ज्येष्ठ पाण्डु पुत्र युधिष्ठर ऋषि-मुनियों और विद्वतजनों का सत्संग करते रहते थे। ऐसे ही एक बार मार्कण्डेय ऋषि (Markandeya Rishi) के साथ सत्संग के दौरान उन्होंने प्रश्न किया, “मुनिवर! मनुष्य किस अवस्था में दान Donation देने से इन्द्रलोक में जाकर सुख भोगता है और दान आदि शुभ कर्मों का भोग उसे किस प्रकार प्राप्त होता है ? ”
मार्कण्डेयजी इस प्रश्न को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और इसे जगत के लिए कल्याणकारी बताते हुए युधिष्ठर की जिज्ञासा का समाधान किया। ऋषिवर बोले, “हे पाण्डु पुत्र! जो पुत्रहीन हैं, जो धार्मिक जीवन व्यतीत नहीं करते, जो सदा दूसरों की ही रसोई में भोजन किया करते हैं तथा जो सदैव अपने लिए ही भोजन बनाते हैं और देवता एवं अतिथि को अर्पित नहीं करते हैं, इन चार प्रकार के मनुष्यों का जीवन व्यर्थ है। जो वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम से पुनः गृहस्थ आश्रम में लौट आया हो, उसको दिया हुआ दान (Donation) तथा अन्याय से कमाये हुए धन का दान व्यर्थ है। इसी प्रकार पतित मनुष्य, चोर ब्राह्मण, आचारहीन ब्राह्मण, मिथ्यावादी गुरु, पापी, कृतघ्न, ग्रामयाजक (वह ब्राह्मण जो ऊंच-नीच सभी तरह के लोगों का पुरोहित हो), वेद का विक्रय करने वाले तथा पतित कर्मा व्यक्ति से यज्ञ कराने वाले को दिया गया दान व्यर्थ है। इसलिए सभी अवस्थाओं में दान (Donation) उत्तम ब्राह्मण को ही देना चाहिए।”
सदैव धर्म मार्ग पर अडिग रहने वाले पाण्डु पुत्र ने अगला प्रश्न किया, “हे मुने! ब्राह्मण किस विशेष धर्म का पालन करें जिससे कि दूसरों को भी तारें और खुद भी तर जायें? ”
मार्कण्डेय ऋषि ने कहा, “ब्राह्मण जप, मंत्र पाठ, होम, स्वाध्याय और वेदाध्ययन के द्वारा वेदमय़ नौका का निर्माण करते हैं जिसके सहारे वे दूसरों को तारते हैं और स्वयं भी तर जाते हैं। जो ब्राह्मण को प्रसन्न करता है, उस पर समस्त देवता प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध में प्रयत्न करके उत्तम ब्राह्मण को ही भोजन कराना चाहिए। जिनके शरीर का रंग घृणा उत्पन्न करता हो, जिनके नख गंदे रहते हों, जो कोढ़ी और कपटी हों, पिता की जीवितावस्था में जो मां के व्यभिचार से उत्पन्न हुए हों अथवा जिनका जन्म विधवा मां के गर्भ से हुआ हो और जो पीठ पर तरकश बांधकर क्षत्रियवृत्ति से जीविका चलाते हों, ऐसे ब्राह्मणों को श्राद्ध में यत्नपूर्वक त्याग दें। उक्त लोगों को जिमाने से श्राद्ध निन्दित हो जाता है और निन्दित श्राद्ध यजमान को उसी प्रकार जला कर नष्ट कर देता है जैसे अग्नि काष्ठ को जला डालती है। किन्तु हे राजन! अंधे, बहरे, गूंगे आदि जिनको शास्त्रों में वर्जित बतलाया गया है, उनको वेदपरांगत ब्राह्मण के साथ श्राद्ध में निमंत्रण दे सकते हैं।”
दान देने योग्य व्यक्ति (To whom to donate?)
मार्कण्डेय ऋषि ने आगे कहा, “पाण्डु पुत्र! अब मैं तुम्हें यह बताता हूं कि कैसे व्यक्ति को दान (Donation) देना चाहिए। जो सम्पूर्ण शास्त्रों का विद्वान हो और अपने को और दाता को तारने की शक्ति रखता हो, ऐसे बाह्मण को दान देना चाहिए। अतिथियों को भोजन कराने का भी अत्यन्त महत्व है। उन्हें भोजन कराने से अग्निदेव जितना संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें हविष्य का हवन करने और फूल एवं चंदन चढ़ाने से भी नहीं होता है। अतः तुम्हें अतिथियों को भोजन देते रहने का सदैव प्रयत्न करना चाहिए। जो लोग दूर से आये हुए अतिथि को पैर धोने के लिए जल, उजाले के लिए दीपक, भोजन के लिए अन्न और रहने के लिए स्थान देते हैं, उन्हें कभी यमराज के पास नहीं जाना पड़ता। ”
गाय के दान का महत्व (Importance of cow donation)
“हे युधिष्ठर! कपिला गौ का दान करने से मनुष्य निस्संदेह सभी पापों से मुक्त हो जाता है; अतः अच्छी तरह से सजायी हुई कपिला गौ ब्राह्मण को दान करनी चाहिए। दानपात्र ब्रह्मण श्रोत्रिय हो और नित्य अग्निहोत्र करता हो। दरिद्रता के कारण जिन्हें स्त्री और पुत्रों के तिरस्कार सहने पड़ते हों तथा जिनसे अपना कोई उपकार न होता हो, ऐसे लोगों को ही गाय का दान करना चाहिए, धनवानों को नहीं। एक बात और ध्यान रखने की है। एक गाय एक ही ब्राह्मण को ही दान करनी चाहिए, बहुत-से ब्राह्मणों को नहीं क्योंकि एक ही गाय यदि बहुत लोगों को दान दी गयी हो तो वे उसे बेच कर उसकी कीमत बांट लेंगे। दान की गयी गाय यदि बेची जायेगी तो वह दाता की तीन पीढ़ी तक को हानि पहुंचाएगी। जो लोग कंधे पर जुआ उठाने में समर्थ बलवान बैल ब्राह्मणों को दान करते हैं, वे दुख और क्लेशों से मुक्त होकर स्वर्ग लोक को जाते हैं। जो विद्वान ब्रह्मणों को भूमि का दान करते हैं, उन दाताओं के पास सभी मनोवांछित भोग अपने आप पहुंच जाते हैं।”
सबसे श्रेष्ठ है अन्नदान (Food donation is the best)
ऋषिवर ने युधिष्ठर की जिज्ञासा का समाधान करते हुए आगे कहा, “ अन्नदान का महत्व तो सबसे बढ़कर है। यदि कोई दीन-दुर्बल, थका-मांदा, भूखा-प्यासा, धूल भरे पैरों से आकर किसी से पूछे कि क्या कहीं अन्न मिल सकता है और वह उसे उस अन्नदाता का पता बता दे तो पता बताने वाले को भी अन्नदान का ही पुण्य मिलता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इसलिए मनुष्य को अन्य प्रकार के दानों की अपेक्षा अन्नदान पर ही विशेष ध्यान देना चाहिए। इस संसार में अन्नदान के समान अद्भुत पुण्य और किसी दान का नहीं है। जो व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को उत्तम अन्न का दान करता है, वह उस पुण्य के प्रभाव से प्रजापति लोक को प्राप्त होता है। वेदों में अन्न को प्रजापति कहा गया है। प्रजापति संवत्सर माना गया है। संवत्सर यज्ञ रूप है और यज्ञ में सबकी स्थिति है। यज्ञ से ही समस्त चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अन्न ही सब पदार्थों में श्रेष्ठ है। जो लोग अधिक जल वाले तालाब खुदवाते हैं, बावली और कुएं बनवाते हैं, दूसरों के रहने के लिए धर्मशालाएं तैयार करवाते हैं, अन्न का दान करते हैं और मीठी वाणी बोलते हैं, उन्हें यमराज की बात भी नहीं सुननी पड़ती है। ”
कौन हैं मार्कण्डेय ऋषि (Who is Markandeya Rishi?)
मार्कण्डेय एक प्राचीन ऋषि हैं जिनका उल्लेख अनेक धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। वे महान ऋषि मर्कण्डु और उनकी पत्नी मरुदमती के पुत्र हैं। मार्कण्डेय पुराण में विशेष रूप से मार्कण्डेय और जैमिनि ऋषि के बीच एक संवाद शामिल है। भागवत पुराण में कई अध्याय उनकी बातचीत और प्रार्थना के लिए समर्पित हैं। महाभारत में भी उनका उल्लेख है। मार्कण्डेय सभी मुख्यधारा की हिंदू परंपराओं में आदरणीय हैं। मार्कण्डेय तीर्थ, जहां ऋषि मार्कण्डेय ने मार्कण्डेय पुराण लिखा था, उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले में यमुनोत्री तीर्थ के लिए एक पर्वतारोहण मार्ग पर स्थित है।
धर्मग्रंथों में कहा गया है कि अश्वत्थामा, दैत्यराज बली, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि सदैव जीवित यानी चिरंजीव हैं। इनका स्मरण सुबह-सुबह करने से समस्त बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु प्राप्त करता है। इन सबमें भी अकेले मार्कण्डेय ही ब्रह्माजी को छोड़ आयु में शेष सभी से बड़े हैं।