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कभी नाउम्मीदी के श्मशान में बदल चुकी श्रमिक बस्तियों के अनगिनत होनहार सीए, एमबीए, डॉक्टर,  इंजीनियर, सैन्य अधिकारी, शिक्षक बन इंसान की जिजीविषा का जयघोष कर रहे हैं।

गजेन्द्र त्रिपाठी

बरेली में रामपुर जाने वाली सड़क पर स्वालेनगर से परसाखेड़ा तक छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों का अनवरत सिलसिला। वक्त के साथ कुछ पर ताले लग गये तो कुछ नए प्लांट खड़े हो गये। गोया किस्से ही किस्से जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेते।

पेड़ों की घनी छांव के बीच ऊपर धुआं-धुआं आसमान और नीचे जमीं पर श्रमिकों की आवाजाही, मशीनों की खटर-पटर और सायरन की आवाज के बीच अपना बचपन गुजरा। इसी कलक्टरबकगंज यानी सीबीगंज से परसाखेड़ा तक यूं तो सैकड़ों फैक्ट्रियां हैं पर सीबीगंज को असल पहचान मिली आईटीआर, विमको और कैम्फर फैक्ट्रियों से। वक्त का सितम देखिए, गाज इन तीनों पर ही गिरी। सबसे पहले ठंडी हुई आइटीआर के बॉयलरों की आग। उत्तरांचल (उत्तराखण्ड) क्या बना, पहले से ही हांफ-हांफ कर चल रही फैक्ट्री का दम ही घुट गया। नए-नए बने उत्तराखण्ड के नीति नियंताओं का किसी अन्य राज्य को लीसा न देने का अहंकारपूर्ण-तुगलकी फरमान आइटीआर पर भारी पड़ा और पांच सौ से अधिक परिवार भुखमरी के कगार पर पहुंच गये। लेकिन, उत्तराखण्ड ने सिर्फ गंवाया ही गंवाया। वहां की ज्यादातर लीसा-तारपीन फैक्ट्रियां बंद हैं, कुछ-एक हांफ-हांफ कर चल रही हैं और लाखों टन बेशकीमती लीसा बागेश्वर, अल्मोड़ा से लेकर हल्द्वानी तक के डिपो में सड़ रहा है।

टिक्का और शिप ब्रांड माचिस (दियासलाई) के लिए देशभर में नाम कमाने वाली विमको को लाइटर के बढ़ते चलन के साथ ही झटके लगने शुरू हुए, रही-सही कसर पूरी कर दी दक्षिण भारत की छोटी माचिस इकाइयों को उत्पाद शुल्क समेत अन्य रियायतों ने। नतीजतन करीब नौ साल पहले मालिकान ने यह प्लांट आइटीसी को बेच दिया। वीआरएस देकर घर बैठा दिए गये श्रमिक क्व़ॉर्टर खाली कर चुके हैं। बेहतरीन क्रिकेट और फुटबाल मुकाबलों के गवाह रहे इसके मैदानों पर सन्नाटा है। मुख्य गेट पर मुस्तैद गार्ड जरूर उम्मीद जगाते हैं- वह सुबह कभी तो आएगी…।

इन तीनों में भाग्यशाली रही कैम्फर। आईटीआर के बंद होने के बाद कच्चे माल के संकट से जूझ रही यह फैक्ट्री कई मालिकानों के हाथों से गुजरते हुए इन दिनों ओरिएंट ग्रुप के पास है। और हां, पास ही में फतेहगंज पश्चिम की शान रही सिंथेटिक्स एंड केमिकल्स लिमिटेड यानी रबर फैक्ट्री को कैसे भी भूल सकते हैं। एशिय़ा का यह सबसे बड़ा कृत्रिम रबड़ प्लांट भी अब यादों में ही रह गया है जिसके सैकड़ों श्रमिक सीबीगंज में रहते थे। इन विशाल और नामी फैक्ट्रयों और इनके कर्मचारियों के साथ जो हुआ वह किसी भयावह हादसे से कम नहीं था।

मेरा मकसद इन फैक्ट्रियों के हाल पर सियापा करना नहीं बल्कि इंसान की उस जिजीविषा को सलाम करना है जो अंधेरे के बीच भी रोशनी की किरण ढूंढ लेती है। ये चमन उजड़े तो क्या सीबीगंज भी उजड़ गया? नहीं। यहां रहने वाले फिटर, टर्नर, बैल्डर, मशीनमैन, ऑपरेटर भले ही एकबारगी सड़क पर आ गये हों पर उनके साथ था उनका हौसला, उम्मीद और हुनर, वे तालीम की ताकत जानते थे। दुकानों में काम किया, फड़-खोमचा लगाया, मजदूरी की, ट्यूशन पढ़ाकर जैसे-तैसे गृहस्थी की गाड़ी खींची पर बच्चों को शिक्षा दिलाने का हरसंभव प्रयास किया। नतीजे उम्मीद से बेहतर रहे। कभी नाउम्मीदी के श्मशान में बदल चुकी श्रमिक बस्तियों के अनगिनत होनहार सीए, एमबीए, डॉक्टर,  इंजीनियर, सैन्य अधिकारी, शिक्षक बन इंसान की जिजीविषा का जयघोष कर रहे हैं।

और सीबीगंज भी क्या हकीकत में उजड़ गया? नहीं। जहां कभी बाजार के नाम पर आईटीआर और न्यू आइटीआर मार्केट ही थे, आज एक से एक दुकानें, शोरूम, मॉल, होटल, बैंक्वेट हॉल और शिक्षण संस्थान खड़े हो गये हैं। इनमें से ज्यादातर कारोबारी उन श्रमिकों की संतान हैं जो कभी सड़क पर आ गये थे।

अंधेरा छंटने लगा है, सूरज फिर चमकने लगा है। फागुल की गुलाबी सर्द सुबह छत पर बैठे हुए एकाएक एसपी सर (स्वर्गीय सुरेंद्र प्रताप सिंह)) का आज तक पर आखिरी न्यूज बुलेटिन याद आ गया- हादसे होते रहते हैं, जिंदगी चलती रहती है…

 

4 thought on “उजड़े चमन के धूल के फूल”
  1. Bahut khoobsurati se Bataya Gaya h. C b ganj waqyi Badal Gaya h aur bhi jada aage badh Gaya h. 👌

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