बीती विभावरी जाग री!
बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा-घट ऊषा नागरी!
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई-
मधु मुकुल नवल रस गागरी
अधरों में राग अमंद पिए
अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सोई है आली
आँखों में भरे विहाग री!
(काव्य संग्रह “लहर” से)
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अब जागो जीवन के प्रभात!
अब जागो जीवन के प्रभात!
वसुधा पर ओस बने बिखरे
हिमकन आँसू जो क्षोभ भरे
ऊषा बटोरती अरुण गात!
अब जागो जीवन के प्रभात!
तम-नयनों की ताराएँ सब—
मुँद रही किरण दल में हैं अब,
चल रहा सुखद यह मलय वात!
अब जागो जीवन के प्रभात!
रजनी की लाज समेटो तो,
कलरव से उठ कर भेंटो तो,
अरुणांचल में चल रही बात।
अब जागो जीवन के प्रभात!
(सम्पूर्ण काव्य)