अमेरिका में माता-पिता को शिक्षित किया जा रहा है कि वे बच्चे का बुखार बढ़ने पर हर समय चिंतित न हुआ करें। यह इम्यूनिटी डिवेलप होने की स्वाभाविक प्रक्रिया है। डॉक्टर पर बुखार जल्द से जल्द उतारने के लिए दवा की हैवी डेज लिखने को दबाव डालना घातक हो सकता है।
पंकज गंगवार
हम सभी को बुखार से डर लगता है। लगे भी क्यों ना, आखिर यह हमें कष्ट देता है। हम स्वयं को बुखार आने पर भले ही एक बार को सहजता से लें पर हमारा कोई प्रियजन बुखार में होता है तो बेचैन हो उठते हैं, खासकर जब हमारे बच्चे। किसी नई नवेली मां बनी युवती को देखिए, जब उसके बच्चे को बुखार आना शुरू होता है तो वह कितनी बेचैन हो उठती है।
हमारी पूरी कोशिश रहती है कि बस किसी तरह से बुखार उतर जाए। हम कुछ-कुछ घंटों के अंतराल पर थर्मामीटर से बुखार नापते रहते हैं। भले ही हमारा बच्चा बुखार होने के बावजूद खेलकूद रहा हो लेकिन हमारा यह डर तब तक खत्म नहीं होता जब तक कि बच्चे के शरीर का तापमान सामान्य न हो जाए।
हमारा एक तरह का दोस्त है बुखार (Fever is a kind of friend of ours)
बुखार हमारा इतना बड़ा दुश्मन नहीं है जितना बदनाम हमने इसे कर रखा है। बल्कि एक प्रकार से यह हमारा दोस्त ही है। अगर आपको मेरी बात पर यकीन न हो तो 1927 में चिकित्सा शास्त्र (medical science) का नोबेल पुरस्कार क्यों दिया गया, इसके बारे में जान लीजिए। आपको समझ में आ जाएगा कि मैं यह बात क्यों लिख रहा हूं।
दरअसल, 1927 का नोबेल पुरस्कार ऑस्ट्रिया के एक मनोचिकित्सक जूलियस वाग्नर (Julius Wagner) को दिया गया था। यह वह समय था जब तक एंटीबायोटिक की खोज नहीं हुई थी और एक बैक्टीरिया द्वारा फैलने वाली बीमारी सिफलिस ने पूरी दुनिया को परेशान कर रखा था, विशेषकर यूरोप के लोगों को। यूरोपिय साम्राज्यवाद ने यह बीमारी पूरी दुनिया में फैला दी थी थी। यूरोपीय लोग जहां-जहां जाते यह बीमारी वहां-वहां फैल जाती। आज सिफलिस कोई बहुत बड़ी बीमारी नहीं मानी है। यह एंटीबायोटिक की एक डोज से ही ठीक हो जाती है। यह बीमारी यौन संबंध बनाने से फैलती है जिसकी अंतिम अवस्था बहुत खतरनाक हो जाती है। व्यक्ति इस बीमारी के प्रभाव के कारण अपना मानसिक संतुलन भी खो देता है। जूलियस वाग्नेर क्योंकि मनोचिकित्सक थे तो इस तरह के रोगी उनके पास बहुत आते थे। उनकी खोज यह थी की यदि हम किसी प्रकार शरीर का तापमान बढ़ा दें तो शरीर से सिफलिस की बीमारी खत्म हो जाती है। इसके लिए उन्होंने कई अन्य तरीकों को ट्राई किया लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा सफलता मलेरिया के परजीवी को मरीज के खून में इंजेक्ट करने से मिली। इससे होता यह था कि शरीर की प्रतिरोधक शक्ति एक्टिव हो जाती थी और शरीर का तापमान बढ़ जाता था। इस बढ़े हुए तापमान की वजह से सिफलिस के जीवाणु खत्म हो जाते थे और रोगी स्वस्थ हो जाता था। अब आप समझ गए होंगे कि बुखार हमें क्यों आता है। बुखार शरीर की एक ऐसी प्रक्रिया है जो शरीर के बाहरी संक्रमण से लड़ने के लिए जरूरी होती है।
धैर्य न होने की वजह से बिगड़ती है स्थिति
आम लोगों को तो शायद यह बात नहीं पता होगी लेकिन जो लोग चिकित्सा शास्त्र यानी मेडिकल साइंस का अध्ययन करते है उन्हें जरूर पता होनी चाहिए। लेकिन, समस्या यह है कि हम लोगों में इतना धैर्य नहीं होता और डॉक्टर पर रिजल्ट देने यानी कि बुखार को उतारने का भारी दबाव होता है। अगर कोई डॉक्टर आपसे यह कह दे कि कोई बात नहीं एक-दो दिन आराम कर लीजिए, बुखार खुद उतर जाएगा तो ऐसे डॉक्टर के पास आप कभी नहीं जाएंगे। हकीकत में होता यह है कि अगर कोई डॉक्टर एक दिन में बुखार नहीं उतार पाता है तो आप तुरंत दूसरे डॉक्टर के पास चले जाते हैं। ऐसा नहीं है कि दूसरा डॉक्टर कोई कर देगा। कई बार बुखार का कारण यानी कि जो भी इन्फेक्शन होता है उसका साइकिल यानी चक्र खत्म हो जाता है इसलिए बुखार खुद ही उतर जाता है। उससे पहले आप कुछ भी कर लें यह नहीं जाता है। फिर ऐसा होता है कि नया डॉक्टर कोई दूसरी एंटीपायरेटिक या एंटीबायोटिक दे देता है, शायद पहले वाला डॉक्टर भी यही करता है यदि आप उसके पास रुकते। लेकिन, हमें तो बहुत जल्दी है बुखार उतारने की। हम उसके साथ कुछ घंटे भी रहना नहीं चाहते। हम दूसरे डॉक्टर को बहुत बड़ा ज्ञानी मान लेते हैं और पहले वाले को अज्ञानी।
बुखारः अमेरिका में मां-बाप को किया जा रहा शिक्षित
बच्चों के मामले में हम तुरंत डॉक्टर के पास भागते हैं और हमें बुखार उतरवाने की बड़ी जल्दी रहती है। आजकल अमेरिका में माता-पिता को शिक्षित किया जा रहा है कि वे बच्चे का बुखार बढ़ने पर हर समय चिंतित न हुआ करें। यह बच्चों की इम्यूनिटी डिवेलप होने की स्वाभाविक प्रक्रिया है। मेरे दो बेटियां हैं। बुखार आने पर मैं बहुत कम बार ही उनको पेरासिटामोल देता हूं। अधिकतर मामलों में उनका बुखार एक-दो दिन में ऐसे ही ठीक हो जाता है।
आपने नोटिस किया होगा कि जब हम बच्चे को कोई टीका लगवाते हैं तो उसके बाद बुखार आता है। टीके के बाद बुखार आना अच्छा माना जाता है जिससे यह समझा जाता है कि टीके ने काम किया। आपने एक दूसरी बात भी नोटिस की होगी जब बच्चे स्कूल जाना शुरू करते हैं तो उन्हें अक्सर बुखार आता है। दरअसल, बच्चे जब अन्य बच्चों के संपर्क में आते हैं तो उनका सामना विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं (bacteria) और विषाणुओं (viruses) से भी होता है। उनसे इम्यून होने की प्रक्रिया में बच्चे को बार-बार बुखार आता है। प्रकृति बच्चे की रोग प्रतिरोधक शक्ति को स्वाभाविक रूप से बढ़ा रही होती है।
स्वामी ज्ञान समर्पण जी ने मुझे एक किस्सा सुनाया था। बचपन में एक बार उनका बुखार डॉक्टर को दिखाने के बाद भी नहीं उतर रहा था। बाद में उनके फैमिली डॉक्टर ने उनके माता-पिता से कहा कि बच्चा स्वस्थ है, बस आप अपना थर्मामीटर उठाकर फेंक दीजिए। इसका मतलब यह नहीं था कि उनका थर्मामीटर खराब था बल्कि डॉक्टर समझ रहे थे की बच्चा स्वाभाविक रूप से खा-पी रहा है तो इतना चिंतित होने की बात नहीं है, कुछ दिनों में अपने आप स्वस्थ हो जायेगा।
डॉक्टर पर जल्द परिणाम के लिए न डालें दबाव
मैं यह नहीं कह रहा कि किसी व्यक्ति को बुखार आने पर आप डॉक्टर के पास बिल्कुल भी ना जाएं या फिर जरूर जाएं। मेरा सिर्फ इतना कहना है दो-तीन दिन धैर्य रखें, उसे आराम करने दें, फिर भी बुखार नहीं उतरता है तो अपने फैमिली डाक्टर के पास जरूर जाएं और उस पर भरोसा रखें। उस पर जल्दी परिणाम देने का दबाव ना डालें। डॉक्टर पर दबाव डाल कर दवा की हैवी डोज लिखवाने का परिणाम घातक हो सकता है। मैं स्वयं एक ऐसे बच्चे को जानता हूं एलोपैथिक दवाओं की हैवी डोज की वजह से जिसकी जान पर बन आयी थी। दरअसल, डेंगू के नए म्युटेंट की वजह से इस बच्चे के लीवर पर वैसे ही जोर पड़ रहा था और एलोपैथिक दवाओं की बहुत ज्यादा मात्रा ने उसकी स्थिति लिवर ट्रांसप्लांटेशन तक पहुंचा दी थी।
(लेखक पोषण विज्ञान के गहन अध्येता होने के साथ ही न्यूट्रीकेयर बायो साइंस प्राइवेट लिमिटेड (न्यूट्री वर्ल्ड) के चेयरमैन भी हैं)