अब बारी थी सालगिरह वाले दिन की जिसे गुजारने के लिए हमने चुनी अपनी रुचि के मुताबिक आसपास की सबसे शान्त और खूबसूरत जगह एबॉट माउन्ट। यह सुरम्य स्थान उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले में समुद्र की सतह से 1,981 मीटर की ऊंचाई पर है।
अमित शर्मा “मीत”
उस दोपहर मायावती अद्वैत आश्रम (Mayawati Advaita Ashram) से लौटते समय प्रोफेसर हेमन्त सिंह चौधरी के मोबाइल फोन पर ज्योति चौधराइन की कॉल आयी, “अरे सुनिये, कल तो बबुआ (बाबूजी पुकारा करते थे इस नाम से) भइया का जन्मदिन है।” यह सुनकर मैं सकपकाते हुए हैरत से सोचने लगा कि अरे, इन्हें मेरा जन्मदिन याद है! दरअसल, यह पहली बार था कि जब मैं अपनी सालगिरह के मौके पर किसी दोस्त के साथ उसके यहां था वरना तो एक मुद्दत से इस दिन मैं अज्ञातवास में ही होता था और मोबाइल फोन बन्द। ख़ैर, इस बार यह क्रम टूटना ही था। (Abbott Mount: Birthday celebration at haunted place in Champawat)
घटकू मन्दिर से लौटने के बाद हम लोगों ने टिमटिमाते तारों से रौशन हो रहे चम्पावत की सुन्दरता को निहारते हुए घर की बालकनी में मजे से खाना खाया। उसके बाद मैं सोने के लिए अपने कमरे की ओर जा ही रहा था कि तभी चौधरी साहब बोले कि आज बारह बजे तुम्हारे बर्थडे का केक काटने के बाद ही सोया जाएगा। चूंकि मैं शुरू से ही अपने इस दिन को विशेष रूप से मनाने का कभी हामी नहीं रहा हूं, लिहाजा मुझे थोड़ा संकोच हो रहा था पर परिवारजनों के आगे किसका बस चलता है। आखिरकार उस रात जीवन-संघर्ष के पैंतीस बरस समाप्त होने की खुशी में हमने केक काट ही लिया।
अब बारी थी सालगिरह वाले दिन की जिसे गुजारने के लिए हमने चुनी अपनी रुचि के मुताबिक आसपास की सबसे शान्त और खूबसूरत जगह एबॉट माउन्ट (Abbott Mount) । यह सुरम्य स्थान उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले के काली कुमाऊं क्षेत्र में समुद्र की सतह से 1,981 मीटर की ऊंचाई पर है। यहां के एक कॉटेज को भारत का सबसे भुतहा अस्पताल कहा जाता है। स्थानीय लोग दिन के उजाले में भी इस ओर जाने से घबराते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि एक ब्रिटिश व्यवसायी जॉन हेरॉल्ड एबॉट को इस जगह का प्राकृति सौन्दर्य और शान्ति इस कदर भायी कि उन्होंने इसे एक यूरोपीय बस्ती के रूप में विकसित करने का फैसला किया। 1901 में उन्होंने पांच एकड़ जंगल में फैले 13 कॉटेज का एक समूह बनाया और अपने परिवार के साथ यहीं रहने लगे। बाद में इस स्थान का नाम उनके नाम पर रखा गया। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि मशहूर शिकारी जेम्स एडवर्ड कार्बेट (जिम कॉर्बेट) ने इस इलाके में भी एक बाघ का शिकार किया था और इसलिए भी यह इलाका काफी मशहूर हुआ।
यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं तो आपको इस जगह की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। यह जगह घनी उप समशीतोष्ण वनस्पतियों से समृद्ध है। साथ ही आप यहां पर बर्ड वाचिंग, एडवेंचरस ट्रैकिंग और पीसफुल नेचर वॉक का मज़ा ले सकते हैं। प्रकृति के विभिन्न रंगों से भरपूर इस स्थान पर आप विशेष रूप से गर्मियों में हिमालयी पक्षियों, रंगीन तितलियों और चमकीले लाल बुरांश (रोडोडेन्ड्रोन) के फूलों को देख सकते हैं। और हां! अगर आप डरावनी और रहस्यमयी जगहों पर घूमने का शौक रखते हैं तब तो यह जगह आपके लिए ही बनी है।
स्थानीय लोगों के अनुसार, एबॉट ने लन्दन वापस जाने से पहले यहां के अपने बंगले को एक चैरिटेबल हॉस्पिटल के नाम कर दिया। उनकी इच्छा थी की यहां एक अच्छा अस्पताल बने ताकि आसपास के लोगों का समुचित इलाज हो सके। इस अस्पताल में मुफ्त इलाज, अच्छे डॉक्टर और दवाइयों समेत तमाम सुविधाएं थीं। ये भुतहा अस्पताल पहले एबी बंगले के तौर पर जाना जाता था जिसे बाद में अस्पताल में तब्दील कर दिया गया।
साल बीतते गये, अस्पताल चलता रहा। नये डॉक्टर आते रहे और पुराने जाते रहे। इसी क्रम में डॉ. मॉरिस परिवार समेत यहां आए। उन्होंने असाध्य रोगों से ग्रस्त तमाम मरीजों का इलाज किया, कई लोगों को नवजीवन दिया जिसके चलते उनका यश फैलता गया। स्थानीय लोग उनको भगवान और जादूगर मानने लगे। शुरुआत के कुछ महीनों तक सबकुछ ठीक चलता रहा लेकिन एक समय ऐसा आया कि जब डॉक्टर मॉरिस मरीज को देखकर ही भविष्यवाणी कर देते थे कि उसकी मौत इस तारीख को इतने बजे हो जाएगी और होता भी बिल्कुल वैसा ही था। अब गांव के लोग भोलेभाले और अन्धविश्वासी भी थे सो उन्हें डॉक्टर मॉरिस की बातों पर भरोसा होने लगा।
डॉक्टर मॉरिस दिन में 10-15 मरीज़ देखते थे और इनमें से कोई एक मरीज जिसकी हालत ज्यादा ख़राब होती थी, उसके बारे में भविष्यवाणी करते थे। इस भविष्यवाणी के साथ ही उस मरीज को उठाकर अस्पताल के एक ऐसे कमरे में रख दिया जाता था जिसमें केवल डॉक्टर मॉरिस को ही जाने की इजाजत हुआ करती थी। उस कमरे में जाने वाला कोई भी मरीज जिन्दा बाहर नहीं आता था इसलिए उसका नाम “मुक्ति कोठरी” पड़ गया था।
दरअसल, डॉ मॉरिस बेहद काबिल डॉक्टर होने के साथ-साथ अति महत्वाकांक्षी भी थे। वह चिकित्सा विज्ञान क्षेत्र में प्रसिद्धी पाने के लिए अजीब-अजीब तरह की रिसर्च करते रहते थे। इन्सान का दिल कैसे धड़कता है? इन्सान का दिमाग़ कैसे सोचता है? क्या मरने के बाद भी इन्सान का दिमाग काम कर रहा होता है? इस तरह के सवाल डॉ. मॉरिस के जहन में रहते थे और इन्हीं बेतुके रिसर्च की वजह से मरीज की जान चली जाती थी। डॉ मॉरिस जब मरीज की मौत की तारीख और समय बताते थे तो उसे अपनी एक डायरी में नोट कर लेते थे और ठीक उसी समय वह उस मरीज को मार डालते और “मुक्ति कोठरी” से उसकी लाश ही बाहर निकलती थी। बताया जाता है कि उस दौर में ऐसी सौ से ज़्यादा मौतें हुईं और एक समय ऐसा आया कि डॉ मॉरिस को लोग डॉ. डेथ कहने लगे। आज भी उनका कॉटेज डॉक्टर डेथ के बंगले के नाम से ही जाना जाता है। उस बंगले से कुछ ही दूर स्थिति एक चर्च (जो कि अब खस्ताहाल होकर अपने आखिरी पड़ाव पर है) के करीब एक कब्रिस्तान है जहां डॉ मॉरिस और उनके परिवार के सदस्यों को दफनाया गया था। मीडिया वाले और कई यूट्यूबर इस जगह पर काफी रिसर्च कर चुके हैं। फियर फाइल्स ने तो इस जगह पर पूरा एक एपिसोड भी बनाया था।
तन्जावूर : तमिलनाडु में कावेरी तट पर “मन्दिरों की नगरी”
बहरहाल दोस्तों! दोपहर 12 बजे का वक्त था जब मैं और चौधरी साहब इस जगह पर पहुंचे थे। उस खामोश दोपहर में पूरे एबॉट माउन्ट में केवल हम दो लोग ही थे जो वहां घूम रहे थे। सच में इतना मजा आ रहा था कि शब्दों में बयां कर पाना बेहद मुश्किल है। चर्च से लेकर कब्रिस्तान तक और डॉक्टर डेथ के बंगले से लेकर “मुक्ति कोठरी” तक सबकुछ रोमांचित करने वाला था। सन्नाटे का आलम यह था कि रास्ते में पड़े सूखे पत्तों पर हमारे चलने की आवाज तक इतनी तेज हो रही थी कि क्या बताएं? झींगुर और पक्षियों की आवाजें उस भुतहा जगह की खूबसूरती को आर बढ़ा रही थीं। हमने तीन से चार घण्टे वहां पूरी मस्ती के साथ बिताए और इसके साथ ही यह दिन मेरे अब तक के सबसे खूबसूरत जन्मदिनों की सूची में शुमार हो गया।
[…] […]
[…] […]