आधुनिक विज्ञान ने पाया है कि जंगल के सभी पेड़-पौधे जमीन के नीचे एक-दूसरे की जड़ों से जुड़े होते हैं। ऐसा ही भारत में जन्मे धर्मों के बारे में कह सकते हैं।
पंकज गंगवार
जिन लोगों ने घने जंगल या बाग देखे हैं उन्होंने एक बात नोटिस की होगी कि वहां के पेड़-पौधों में एक-दूसरे से आगे निकलने की, आगे बढ़ने की होड़ दिखती है। ऊपर से देखने पर हमें लगता है की पेड़-पौधे अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक-दूसरे से संघर्ष कर रहे हैं। वे सूर्य का ज्यादा से ज्यादा प्रकाश पा लेना चाहते हैं। उनकी जड़ें मिट्टी में शामिल ज्यादा से ज्यादा पोषक तत्व अवशोषित कर लेना चाहती हैं। लेकिन, कई बार वास्तविकता जो ऊपर से देखती है वह होती नहीं है। आधुनिक विज्ञान ने पाया है कि जंगल के सभी पेड़-पौधे जमीन के नीचे एक-दूसरे की जड़ों से जुड़े होते हैं और एक-दूसरे को पोषण देते हैं। ऊपर का संघर्ष अवश्य होता है लेकिन नीचे आपस में उनकी जड़ों में सहजीवन होता है।
ऐसा ही भारत में जन्मे धर्मों के साथ है। वे ऊपर से अलग जरूर दिखते हैं, कई बार उनमें संघर्ष भी दिखता है, वर्चस्व की लड़ाई दिखती है, स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ दिखती है लेकिन वे एक ही जमीन पर खड़े हुए हैं और उनकी जड़ें आपस में जुड़ी हुई हैं। मैं यह उपमा नहीं दे रहा कि भारत में जन्मे धर्म एक ही वृक्ष की विभिन्न शाखाएं हैं। यह कहना पूरी तरह से सही नहीं है कि वह एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। मेरे हिसाब से वे जिस जमीन पर खड़े हैं वह जमीन एक है। और न सिर्फ उनकी जमीन एक है बल्कि जड़ें भी आपस में जुड़ी हुई हैं और जंगल के पेड़-पौधों की तरह एक-दूसरे को पोषित और पल्लवित कर रही हैं। न जाने कितने ऐसे विचार और सिद्धांत हैं जो आपको वेद, उपनिषद और लेकर गीता यानी हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध, जैन और सिख हर जगह थोड़ी-सी अदल-बदल के साथ मिल जाएंगे।
आज मैं उन चार शब्दों की बात करूंगा जिनमें चार विचार समाहित हैं। इनको सर्वप्रथम मैंने स्वामी ज्ञान समर्पण के मुंह से सुना था। वह कहते हैं कि अगर व्यक्ति को जीवन में सुखी रहना है तो पतंजलि के इस सूत्र का पालन करना चाहिएः-
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥१.३३॥
इसका अर्थ है है- जो सुखी हैं उनके प्रति मैत्री का भाव, जो दुखी हैं उनके प्रति करुणा का भाव, जो सौभाग्यशाली हैं उनके प्रति मुदिता का भाव और जो पाप कर्म कर रहे हैं, उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखना चाहिए।
लेकिन, बाद में मैने पाया की यह सिद्धांत बौद्ध दर्शन में भी है। बौद्ध दर्शन में इन्हें ब्रह्म विहार कहा गया है। अर्थात ऐसा आचरण जो ब्रह्म की ओर ले जाए, मुक्ति, मोक्ष, कैवेल्य या निर्वाण की तरफ ले जाए। पतंजलि के सूत्र में यह योगी द्वारा किए जाने वाले व्यवहार के संबंध में है जबकि बौद्ध दर्शन में इसके और विस्तृत अर्थ दिए गए हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि पतंजलि ने इनको बौद्ध दर्शन से उठाया होगा या बौद्धों ने इसको पतंजलि से लिया होगा। या फिर यह विचार पहले से ही कहीं हो और दोनों ने इसको वहां से ले लिया। इनमें से कुछ भी हो सकता है क्योंकि जमीन एक है और जड़ें जुड़ी हुई हैं। इसलिए कुछ भी कह पाना मुश्किल है और मैं इन बातों में पड़ना भी नहीं चाहता। मेरे लिए विचार महत्वपूर्ण हैं चाहे वे कहीं से भी आ रहे हो।

आज बात करते हैं इन चार विचारों करुणा, मैत्री, मुदिता और उपेक्षा की। अगर आप सुखी जीवन और शांत जीवन चाहते हैं तो अपने जीवन में चार विचारों का अभ्यास करना शुरू कर दें। जितना इसमें परिपूर्ण होते जाएंगे आपका जीवन उतना ही आसान होता चला जाएगा।
मैत्री : मित्रता और मैत्री में थोड़ा सा अंतर है। मित्रता किसी व्यक्ति विशेष के प्रति हो सकती है लेकिन मैत्री सभी के प्रति होती है। मैत्री शब्द बहुत व्यापक है। मैत्री एक भाव जैसा है। इसमें जो भी संपर्क में आएगा, जो भी आसपास है, उस सबके प्रति मित्रता का भाव होता है। मैत्री के भाव वाला व्यक्ति सजीव को तो छोड़िए किसी निर्जीव वस्तु को भी नुकसान नहीं पहुंचा सकता।
करुणा : संसार में जो भी दुखी लोग हैं उनके प्रति करुणा का भाव यानी कि उनके दुख से दुखी या सुखी नहीं होना या फिर उनके प्रति घृणा का भाव नहीं लाना बल्कि उनके दुख के कारण को समझना उनके प्रति करुणा का भाव है।
मुदिता : यह शब्द एक ऐसी स्त्री के लिए प्रयुक्त होता है जो प्रेम में है जिसको सबकुछ अच्छा दिखता है। यहां पर मुदिता का अर्थ है दूसरे के सुख से सुखी हो जाना। एक तरह से यह शब्द ईर्ष्या का विलोम शब्द है। जब कोई व्यक्ति सुखी होता है और यदि वह अपना खास नही है तो हम उसके प्रति ईर्ष्यालु हो जाते हैं। मुदिता में चाहे वह हमारा दुश्मन ही क्यों ना हो, यदि वह सुखी है तो हमें उसके सुख में भी सुख महसूस होता है।
उपेक्षा : पतंजलि ने दुष्टों के प्रति उपेक्षा की बात की है। यहां पर उपेक्षा कुछ नकारात्मक अर्थों में दिखता है। लेकिन, बौद्ध दर्शन में उपेक्षा का अर्थ बताया गया है सबको सम दृष्टि से देखना। जैसा कि गीता में स्थितप्रज्ञ के बारे में कहा गया है, कुछ-कुछ वैसा ही अर्थ है। बौद्ध दर्शन में उपेक्षा शब्द जो कि पाली के उपेक्कखा से आया है, के वैसे ही अर्थ बताए गए हैं जैसे गीता में स्थितप्रज्ञ के हैं। जीवन में चाहे दुख आए या सुख दोनों ही अवस्था में संतुलित रहना है।
ऐसे आचरण से आपको मुक्ति, मोक्ष, निर्माण, कैवल्य आदि मिल पाएंगे कि नहीं यह तो नहीं पता लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि इस जीवन में आप शांति और सुख से अपना जीवन जरूर व्यतीत कर पाएंगे।
(लेखक पोषण विज्ञान के गहन अध्येता होने के साथ ही न्यूट्रीकेयर बायो साइंस प्राइवेट लिमिटेड (न्यूट्री वर्ल्ड) के चेयरमैन भी हैं)